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## Fifth Chapter 103. Again, the king, devoid of understanding, said in that forest, "There are many kinds of deer here. You should carry out your task with them." 105. Hearing those words, Kuruvind, fearing sin, pondered and remained silent for a moment, unable to carry out that wicked deed. 106. Realizing the truth, that his father was bound for hell, the wise man, with divine knowledge, became hesitant. 107. Believing that he could not disobey his father's words, he nevertheless had a well built, filled with artificial blood made from lac. 108. Hearing this, the wicked king, Kuruvind, was overjoyed, as if a poor man would be overjoyed to find a treasure he had never possessed before. 109. Just as a wicked being considers the river Vaitarani to be very good, so too did the wicked king Kuruvind, deceived by the red color of the lac, consider that well to be very good, thinking it was real blood. 110. When he was brought to the well, he immediately lay down in the middle of it and began to play as he wished. But when he rinsed his mouth, he realized that it was artificial blood. 111. Knowing this, the foolish king Kuruvind, like the moon that increases the ocean of sin, became enraged, as if he wished to fulfill his full lifespan in hell, and ran to kill his son. 112-113. But in the middle of his run, he fell in such a way that his heart was pierced by his own sword, and he died. 114. Having obtained that evil fate, he went to hell, due to his wicked deeds. O King! This story is still remembered by the people of this city of Alka. 115. Just as an elephant lowers its head when its tusks are broken, or as a serpent loses its brilliance when its gem is removed, so too...
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________________ पञ्चमं पर्व १०३ पुनरप्यवदल्लब्धविमङ्गोऽस्मिन् वनान्तरे । मृगा बहुविधाः सन्ति तैस्त्वं प्रकृतमाचरः ॥१०५॥ स तद्वचनमाकर्ण्य पापभीरुर्विचिन्त्य च । तत्कर्मापार यन् कत्तुं मूकीभूतः क्षणं स्थितः ॥१०६॥ प्रत्याससमृतिं बुद्ध्वा तं बद्धनरकायुषम् । दिव्यज्ञानदृशः साधोस्तस्कार्येऽभूत् स शोतकः ॥१०७॥ अनुल्लध्यं पितुर्वाक्यं मन्यमानस्तथाप्यसौ । कृत्रिमैः क्षतजैः पूर्णा वापीमेकामकारयत् ॥१०॥ स तदाकर्णनात् प्रीतिमगमत् पापपण्डितः । अलब्धपूर्वमासाद्य निधानमिव दुर्गतः ॥१०९॥ कारिमारुणरागेण वारिणा 'विप्रतारितः । बहु मेने स तां पापो वापी वैतरणीमिव ॥११०॥ तत्रानीतश्च तन्मध्ये यथेष्टं शयितोऽमुत: । चिक्रीड कृतगण्डूषः कृतकं तदबुद्ध च ॥११॥ "नरकायुरपर्याप्तं "पर्यापिपयिषभिव । दधे स"तुग्वधे चित्तमधीः पापोदधेर्विधुः ॥११२॥ स रुष्टः पुत्रमाहन्तुमाधावन् पतितोऽन्तरे। स्वासिधेनुकया दीर्णहृदयो मृतिमासदत् ॥११३॥ स तथा" दुर्मृति प्राप्य गत: "श्वाभीमधर्मतः । कथेयमधुनाप्यस्यां नगर्या स्मय॑ते जनैः ॥११॥ ततो मग्नैकरदनो दन्तीवानमिताननः । उत्खातफणमाणिक्यो महाहिरिव निष्प्रभः ॥११५॥ लिए खूनसे भरी हुई एक बावड़ी बनवा दो ॥१०४॥ राजा अरविन्दको विभंगावधि ज्ञान था इसलिए विचार कर फिर बोला-इसी समीपवर्ती वनमें अनेक प्रकारके मृग रहते हैं उन्हींसे तू अपना काम कर अर्थात् उन्हें मारकर उनके खूनसे बावड़ी भर दे ॥१०५।। वह कुरुविन्द पापसे डरता रहता था इसलिए पिताके ऐसे वचन सुनकर तथा कुछ विचारकर पापमय कार्य करनेके लिए असमर्थ होता हुआ क्षण-भर चुपचाप खड़ा रहा ॥१०६।। तत्पश्चात् वनमें गया वहाँ किन्हीं अवधिज्ञानी मुनिसे जब उसे मालूम हुआ कि हमारे पिताकी मृत्यु अत्यन्त निकट है तथा उन्होंने नरकायुका बन्ध कर लिया है तब वह उस पापकर्मके करनेसे रुक गया ॥१०७। परन्तु पिताके वचन भी उल्लंघन करने योग्य नहीं हैं ऐसा मानकर उसने कृत्रिम रुधिर अर्थात् लाखके रंगसे भरी हुई एक बावड़ी बनवायी ॥१०८।। पापकार्य करने में अतिशय चतुर राजा अरविन्दने जब बावड़ी तैयार होनेका समाचार सुना तब वह बहुत ही हर्षित हुआ जैसे कोई दरिद्र पुरुष पहले कभी प्राप्त नहीं हुए निधानको देखकर हर्षित होता है ॥१०९॥ जिस प्रकार पापी-नारको जीव वैतरणी नदीको बहुत अच्छी मानता है उसी प्रकार वह पापो अरविन्द राजा भी लाखके लाल रंगसे धोखा खाकर अर्थात् सचमुचका रुधिर समझकर उस बावड़ीको बहुत अच्छी मान रहा था ॥११०॥ जब वह उस बावड़ीके पास लाया गया तो आते ही उसके बीचमें सो गया और इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगा। परन्तु कुल्ला करते ही उसे मालूम हो गया कि यह कृत्रिम रुधिर है ॥१११।। यह जानकर पापरूपी समुद्रको बढ़ानेके लिए चन्द्रमाके समान वह बुद्धिरहित राजा अरविन्द, मानो नरककी पूर्ण आयु प्राप्त करनेकी इच्छासे ही रुष्ट होकर पुत्रको मारनेके लिए दौड़ा परन्तु बीच में इस तरह गिरा कि अपनी ही तलवारसे उसका हृदय विदीर्ण हो गया तथा मर गया ॥११२-११३।। वह कुमरणको पाकर पापके योगसे नरकगति को प्राप्त हुआ। हे राजन् ! यह कथा इस अलका नगरीमें लोगोंको आजतक याद है ।।११४॥ जिस प्रकार दाँत टूट जानेसे हाथी अपना मुँह नीचा कर लेता है अथवा जिस प्रकार फणका मणि उखाड़ लेनेसे सर्प तेज १. अतीरयन् असमर्थो भवन्नित्यर्थः । २. मन्दः । 'शीतकोऽलसोऽनुष्णः' इत्यमरः । ३. रक्तः। ४. दरिद्रः । ५. कृत्रिम । ६. वञ्चितः । ७. बहुमन्यते स्म । ८. तां वो वापी वै-अ०। ९. नरकनदीम । १०. नरकायुरपर्यन्तं ५०, द०, ल०। ११. पर्याप्तं कर्तुमिच्छन् । १२. पुत्र हिंसायाम् । १३. स्वच्छरिकया। १४. दीर्ण विदारितम् । १५. तदा द०,५०, ल०।१६ नरकगतिम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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