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The fourth chapter, "The Form of Mahabala," depicts the splendor of his youthful exuberance, as if all beauty were concentrated in him. (18) He conquered the world not only by his handsome appearance but also by the power of mantras acquired through the company of elders. (189) He had four wise ministers, Mahaमति, सम्भिन्नमति, शतमति, and स्वयंबुद्ध, who were like his vital breaths, loyal, and farsighted. (190) They were the stable pillars of his kingdom. (191) Among them, स्वयंबुद्ध was a pure सम्यग्दृष्टि, while the other three were मिथ्यादृष्टि. Despite this difference in views, they were all dedicated to the welfare of their king. (192) With these four ministers, like well-coordinated limbs, Mahabala's kingdom expanded like a समवृत्त. (193) He sometimes consulted all four ministers, sometimes three, sometimes two, and sometimes only the realistic स्वयंबुद्ध. (194) He decided matters himself, and his ministers merely praised his decisions, like the celestial beings who praised the Jina's renunciation. (195)
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________________ चतुर्थ पर्व इत्यस्य रूपमुद्भूननवयौवनविभ्रमम् । कामनीयकमैकध्यमुपनीतमिवाबमौ ॥१८॥ न केवलमसौ रूपशोमयैवाजयज्जगत् । व्यजेष्ट मन्त्रशक्त्यापि वृद्धसंयोगलब्धया ॥१८९॥ तस्याभूवन् महाप्रज्ञाश्चत्वारो मन्त्रिपुङ्गवाः । बहिश्चग इव प्राणा: सुस्निग्धा दीर्घदर्शिनः ॥१९॥ महामतिश्च संमिन्नमतिः शतमतिस्तथा । स्वयंबुद्धश्च राज्यस्य मूलस्तम्मा इव स्थिराः ॥१९१॥ स्वयंबुदोऽमवत् तेषु सम्यग्दर्शनशुद्धधीः । शेषा मिथ्याशस्तेऽमी सर्व स्वामिहितोचताः ॥१९२॥ चतुर्मिः स्वैरमात्यैस्तैः पादैरिव सुयोजितैः। महाबलस्य तदाज्यं पप्रथे समवृत्तवत् ॥१९३॥ समन्त्रिभिश्चतुर्मिस्तैः कदाचिच समं त्रिमिः। द्वाभ्यमेकेन वा मन्त्रमविसंवादिनाऽभजत् ॥१९॥ स्वयं निश्चितकार्यस्य मन्त्रिणोऽस्यानुशासनम् । चक्रुः स्वयं प्रबुद्धस्य जिनस्येवामरोचमाः ॥१९५॥ न्यस्तराज्यमरस्तेषु स बीमिः खचरोचितान् । बुभुजे सुचिरं भोगान् नभोगानामधीशिता ॥१९॥ चले आये दो घर ही हों ।।१८७। इस प्रकार महाबलका रूप बहुत ही सुन्दर था, उसमें नवयौवनके कारण अनेक हाव-भाव विलास उत्पन्न होते रहते थे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो सब जगहका सौन्दर्य यहाँपर ही इकट्ठा हुआ हो ॥ १८८ ॥ उस राजाने केवल अपने रूपकी शोभासे ही जगत्को नहीं जीता था किन्तु वृद्ध जनोंकी संगतिसे प्राप्त हुई मन्त्रशक्तिके द्वारा भी जीता था ॥१८९।। उस राजाके चार मन्त्री थे जो महाबुद्धिमान , स्नेही और दीर्घदर्शी थे। वे चारों ही मन्त्री राजाके बाह्य प्राणोंके समान मालूम होते थे ॥१९०।। उनके नाम क्रमसे महामति, सम्भिन्नमति, शतमति और स्वयंबुद्ध थे। ये चारों ही मन्त्री राज्यके स्थिर मूलस्तम्भके समान थे॥१९१।।उन चारों मन्त्रियोंमें स्वयंबुद्धनामक मन्त्री शुद्ध सम्यग्दृष्टि था और बाकी तीन मन्त्री मिथ्यादृष्टि थे। यद्यपि उनमें इस प्रकारका मतभेद था परन्तु .. स्वामीके हितसाधन करनेमें वे चारों ही तत्पर रहा करते थे ॥१९२॥ वे चारों ही मन्त्री उस राज्यके चरणके समान थे। उनकी उत्तम योजना करनेसे महाबलका राज्य समवृत्तके समान अतिशय विस्तारको प्राप्त हुआ था। भावार्थ-वृत्त छन्दको कहते हैं, उसके तीन भेद हैं-समवृत्त, अर्धसमवृत्त और विषमवृत्त । जिसके चारों पाद-चरण एक समान लक्षणके धारक होते हैं उसे समवृत्त कहते हैं। जिसके प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ पाद एक समान लक्षणके धारक हों उसे अधंसमवृत्त कहते हैं और जिसके चारों पाद भिन्न-भिन्न लक्षणोंके धारक होते हैं उन्हें विषमवृत्त कहते हैं। जिस प्रकार एक समान लक्षणके धारक चारोंपादोंचरणोंकी योजनासे-रचनासे समवृत्त नामक छन्दका भेद प्रसिद्ध होता है तथा प्रस्तार आदिकी अपेक्षासे विस्तारको प्राप्त होता है उसी प्रकार उन चारों मन्त्रियोंकी योजनासेसम्यक् कार्यविभागसे राजा महाबलका राज्य प्रसिद्ध हुआ था तथा अपने अवान्तरविभागोंसे विस्तारको प्राप्त हुआ था। १९३ ।। राजा महाबल कभी पूर्वोक्त चारों मन्त्रियोंके साथ, कभी तीनके साथ, कभी दोके साथ और कभी यथार्थवादी एक स्वयंबुद्ध मन्त्रीके साथ अपने राज्यका विस्तार किया करता था ॥१९४॥ वह राजा स्वयं ही कार्यका निश्चय कर लेता था। मन्त्री उसके निश्चित किये हुए कार्यको प्रशंसा मात्र किया करते थे जिस प्रकार कि तीर्थकर भगवान् दीक्षा लेते समय स्वयं विरक्त होते हैं, लौकान्तिक देव मात्र उनके वैराग्यकी प्रशंसा ही किया करते हैं ॥१९५।। भावार्थ-राजा महाबल इतने अधिक बुद्धिमान और दीर्घदर्शी-विचारक थे १. एकषा भावः ऐकष्यम् । २. विद्वान्सः । 'निरीक्ष्य एव वक्तव्यं वक्तव्यं पुनरजसा । इति यो वक्ति लोकेऽस्मिन् दीर्घदर्शी स उच्यते ॥' ३.-नुशंसनम् म०, २०,ल०। ४. लौकान्तिकाः । ५. अधोशः ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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