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________________ आदिपुराणम् सकर्णपालिके चारु रत्नकुण्लमण्डिते । श्रुताङ्गनासमाक्रीड'लीला दोलायिते दधौ ॥१७७॥ दधेऽसौ नासिकावंशं तुझं मध्येविलोचनम् । तद्वृद्धिस्पर्द्ध रोधार्थ बद्धं सेतुमिवायतम् ॥१७॥ मुखमस्य लसहन्तदीप्तिकेसरमाबमौ । महोत्सलमिवामोदशालि दन्तच्छदच्छदम् ॥१७९॥ पृथुवक्षो बमारासौ हाररोचिर्जलप्लवम् । धारागृहमिवोदारं लक्ष्म्या 'निर्वापणं परम् ॥१८॥ *केयूररुचिरावंसौं तस्य शोमामुपेयतुः । क्रीडाद्री रुचिरी लक्ष्म्या विहारायेव निर्मितौ ॥१८॥॥ युगायतौ विमर्ति स्म बाहू चारुतलारितौ । ससुराग इवोदप्रविटपौ पल्लवोज्ज्वलौ ॥१८२॥ .. *गभीरनामिकं मध्यं"सवलिं ललितं दधौ । महाब्धिरिव सावर्त सारणं च सैकतम् ॥१८३॥ धनं च जघनं तस्य मेखलादामवेष्टितम् । बमौ वेदिकया जम्बूद्वीपस्थलमिवावृतम् ॥१८॥ रम्भास्तम्मनिमावूरू स धत्ते स्म कनाती । कामिनीरष्टिबाणाना लक्ष्याविव निवेशितौ ॥१८५॥ वज्रशाणस्थिरे जके सोऽधत्त रुचिराकृती । मनोजजैत्रवाणानां "निशानायेव काप्यते ॥१८॥ पदतामरसद्वन्द्वंससदगुलिपत्रकम् । नखांशुकेसरं दधे लक्ष्म्याः कुलगृहायितम् ॥१८७॥ को जीतनेकी इच्छा करनेवाले कामदेवके बाण चलाने के दो यन्त्र ही हों ॥१७६।। रत्नजड़ित कुण्डलोंसे शोभायमान उसके दोनों मनोहर कान ऐसे मालूम होते थे मानो सरस्वती देवीके झूलनेके लिए दो झूले ही पड़े हों ।।१७७। दोनों नेत्रोंके बीच में उसकी ऊँची नाक ऐसी जान पड़ती थी मानो नेत्रोंकी वृद्धिविषयक स्पर्धाको रोकनेके लिए बीच में एक लम्बा पुल ही बाँध दिया हो ॥१७८|| उस राजाका मुख सुगन्धित कमलके समान शोभायमान था। जिसमें दाँतोंकी सुन्दर किरणें ही केशर थीं और ओठ ही जिसके पत्ते थे ॥१७९॥ हारकी किरणोंसे शोभायमान उसका विस्तीर्ण वक्षःस्थल ऐसा मालूम होता था मानो जलसे भरा हुआ विस्तृत, उत्कृष्ट और सन्तोषको देनेवाला लक्ष्मीका स्नानगृह ही हो ॥१८०।। केयूर (बाहुबन्ध) की कान्तिसे सहित उसके दोनों कन्धे ऐसे शोभायमान होते थे मानो लक्ष्मीके विहारके लिए बनाये गये दो मनोहर क्रीड़ाचल ही हों ॥१८१।। वह युग (जुआँरी) के समान लम्बी और मनोहर हथेलियोंसे अंकित भजाओंको धारण कर रहाथा जिससे ऐसा मालम होरहा था मानो को से शोभायमान दो बड़ी-बड़ी शाखाओंको धारण करनेवाला कल्पवृक्ष ही हो ॥१८२।। वह राजा गम्भीर नाभिसे युक्त और त्रिवलिसे शोभायमान मध्य भागको धारण किये हुए था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो भँवर और तरंगोंसे सहित बालूके टीलेको धारण करनेवाला समुद्र ही हो ॥१८३।। करधनीसे घिरा हुआ उसका स्थूल नितम्ब ऐसा शोभायमान होता था मानो वेदिकासे घिरा हुआ जम्बूद्वीप ही हो ॥१८४॥ देदीप्यमान कान्तिको धारण करने और कदली स्तम्भकी समानता रखनेवाली उसकी दोनों जाँघे ऐसी शोभायमान होती थीं मानो त्रियोंके दृष्टिरूपी बाण चलानेके लिए खड़े किये गये दो निशाने ही हों ॥१८५|| वह महाबल वनके समान स्थिर तथा सुन्दर आकृतिवाली पिंडरियोंको धारण किये हुए था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो कामदेवके विजयी बाणोंको तीक्ष्ण करनेके लिए दो शाण ही धारण किये हो ॥१८६।। वह अंगुलीरूपी पत्तोंसे युक्त शोभायमान तथा नखोंकी किरणोंरूपी केशरसे युक्त जिन दो चरणकमलोंको धारण कर रहा था वे ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मीके रहनेके लिए कुलपरम्परासे १. आक्रोडः उद्यानम । २. लीला दो-स०. ल.। ३. विलोचनयोर्मध्ये । ४. स्पद्धि-मः । ५. छदं पत्रम् । ६. सुखहेतुम् । ७. सकेयूररुचावंसी अ०, १०, ११, स०, ल०। ८. भुजशिखरौ। ९. कल्पवृक्षः । १०. गम्भीर-प०, द०, ल०। ११. स बली अ०,५०,८०, म०, स० । १२. पुलिनम् । १३. काञ्चीदाम । १४. निशातनाय [ तीक्ष्णीकरणाय] । १५. लसदङ्गलि-म०,०।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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