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## Fourth Chapter His head, adorned with flowers, was like the peak of Trikuta mountain, always new, with a cascade of chamaras flowing from its sides. His broad chest, adorned with garlands, was like the playground of Lakshmi, a sea of virtues. His hands were like elephant trunks, his thighs like the quiver of Kamadeva, his hips like rubies, and his feet like lotus blossoms. It is futile to describe each of his limbs, for he surpasses all beautiful things in the world. His beautiful wife, Manohara, was like the victorious arrow of Manobhava, her beauty captivating all. She was like a vine adorned with flowers of laughter, dear to her husband, a follower of Jainism, and a bringer of fame. Their son, Mahabala, was born under a fortunate star. His birth brought joy to all his brothers, like a lump of sugar to a group of friends. He possessed natural qualities: skill in the arts, bravery, generosity, intelligence, forgiveness, compassion, patience, truthfulness, and purity. His body and virtues grew in mutual rivalry, each striving to surpass the other. This rivalry is common among those who live together, for similarity in action breeds competition.
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________________ चतुर्थ पर्व सपुष्पकेशमस्याभादुत्तमाङ्गं सदानवम् । त्रिकूटानमिवोपान्तपतच्चामरनिर्झरम् ॥१२७॥ पृथु वक्षःस्थलं हारि हारवल्लीपरिष्कृतम् । क्रीडाद्विपायितं लक्ष्म्याः स बमार गुणाम्बुधिः ॥१२८॥ करौ करिफराकारावूरू कामेषुधीयितौ । कुरुविन्दाकृती जके क्रमावम्बुजसच्छवी ॥१२९॥ 'प्रतिप्रतीकमित्यस्य कृतं वर्णनयानया । यद्यच्चारूपमावस्तु तत्तत्स्वाङ्गैजिंगीषतः ॥१३०॥ मनोहराङ्गी तस्याभूत् प्रिया नाम्ना मनोहरा । मनोभवस्य जैत्रेषुरिव या रूपशोमया ॥१३॥ स्मितपुष्पोज्ज्वला भतः प्रियासील्लतिकेव सा । हितानुबन्धिनी जैनी विद्येव च यशस्करी ॥१३२॥ तयोर्महाबलख्यातिरभूत् सूनुर्महोदयः । यस्य "जातावभूत् प्रीतिः पिण्डीभूतेव बन्धुषु ॥१३३॥ कलासु कौशलं शौयं त्यागः प्रज्ञा क्षमा दया। धृतिः सत्यं च शौचं च गुणास्तस्य निसर्गजाः ।।१३४॥ स्पर्धयेव वपुर्वृद्धौ विवृद्धाः प्रत्यहं गुणाः । स्पर्धा मेकत्र भूष्णूनां क्रियासाम्याद् विवर्धते ॥१३५।। भौंहोंरूप दोनों पताकाएँ फहरा रखी हों ॥१२६॥ महाराज अतिबलका मस्तक ठीक त्रिकूटाचलके शिखरके समान शोभायमान था क्योंकि जिस प्रकार त्रिकूटाचल-सपुष्पकेश-पुष्पक विमानके स्वामी रावणसे सहित था उसी प्रकार उनका मस्तक भी सपुष्पकेश-अर्थात् पुष्पयुक्त केशोंसे सहित था। त्रिकूटाचलका शिखर जिस प्रकार सदानव-दानवोंसे-राक्षसोंसे सहित था उसी प्रकार उनका मस्तक भी सदानव-हमेशा नवीन था-श्याम केशोंसे सहित था। और त्रिकूटाचलके समीप जिस प्रकार जलके झरने झरा करते हैं उसी प्रकार उनके मस्तकके समीप चौंर दुल रहे थे ॥१२७।। वह राजा गुणोंका समुद्र था, उसका वक्षःस्थल अत्यन्त विस्तृत था, सुन्दर था और हाररूपी लताओंसे घिरा हुआ था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो लक्ष्मीका क्रीडाद्वीप ही हो ॥१२८।। उस राजाकी दोनों भुजाएँ हाथीकी ढूँड़के समान थीं, जाँघे कामदेवके तरकसके समान थीं, पिंडरियाँ पद्मरागमणिके समान सुदृढ़ थीं और चरणकमलोंके समान सुन्दर कान्तिके धारक थे ॥१२९।। अथवा इस राजाके प्रत्येक अंगका वर्णन करना व्यर्थ है क्योंकि संसारमें सुन्दर वस्तुओंकी उपमा देने योग्य जो भी वस्तुएँ हैं उन सबको यह अपने अंगोंके द्वारा जीतना चाहता है। भावार्थ-संसारमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसकी उपमा देकर उस राजाके अंगोंका वर्णन किया जाये ॥१३०।। उस राजाकी मनोहर अंगोंको धारण करनेवाली मनोहरा नामकी रानी थी जो अपनी सौन्दर्य-शोभाके द्वारा ऐसी मालूम होती थी मानो कामदेवका विजयी बाण ही हो ॥१३१।। वह रानी अपने पतिके लिए हास्यरूपी पुष्पसे शोभायमान लताके समान प्रिय थी और जिनवाणीके समान हित चाहनेवाली तथा यशको बढ़ानेवाली थी॥१३२।। उन दोनांके अतिशय भाग्यशाली महाबल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। उस पुत्रके उत्पन्न होते ही उसके समस्त सहोदरों में प्रेमभाव एकत्रित हो गया था ॥१३।। कलाओंमें कुशलता, शूरवीरता, दान, बुद्धि, क्षमा, दया, धैर्य, सत्य और शौच ये उनके स्वाभाविक गुण थे ।।१३४।। उस महाबलका शरीरं तथा गुण ये दोनों प्रतिदिन परस्परकी ईर्ष्यासे वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे अर्थात् गुणोंकी वृद्धि देखकर शरीर बढ़ रहा था और शरीरको वृद्धिसे गुण बढ़ रहे थे। सो ठीक ही है क्योंकि एक स्थानपर रहनेवालोमें क्रियाकी समानता होनेसे ईर्ष्या १. पुष्पकचसहितम् पुष्पकविमानाधीशसहितं च । सरावणमिति यावत् । २. नित्यं नूतनं सराक्षसं च । ३. हारावलि-स०। ४ अलकृतम् । ५. पद्मरागरत्नाकराकृती। "कुरुविन्दस्तु मुस्तायां कुल्माषब्रीहिभेदयोः । हिङ्गडे पद्मरागे च मुकुरेऽपि समीरितः ॥" ६. अवयवं प्रति । ७. अलम् । ८. जिगोषति स०, म०, ल०। ९. जैनागम इव । १०. उत्पत्तो। ११. संतोषः। १२. भूतानां स०, म०,ल.।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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