SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
The fourth chapter describes a city where: * **Clean water is the garment, blue lotuses are earrings, lotuses are faces, and shining kuvalaya are eyes.** (112) * **There are no ignorant people, no women without virtue, no homes without gardens, and no gardens without fruit.** (113) * **There are no festivals without proper worship, and no deaths without the rites of renunciation.** (114) * **Fields of rice constantly shine, ripening on their own, giving great rewards like merit to the people.** (115) * **In the gardens, there are many small trees (plants) that have not yet reached full stability. Others carefully protect them and feed them milk like children.** (116) * **The city's markets are like a great ocean, with the same sound, the same shining jewels, and people moving around like aquatic creatures.** (117) * **Only lotuses lack petals when they bloom, not the people of this city. Fear is only in women, not in the men. Lowliness is only in lips, not in the people. Sharpness is only in swords, not in the people. Begging and taking hands (a special ritual during marriage) are only in marriage, not in the people.** (118-119) * **The city's gardens are like a bride and groom, beloved by all, because they are:** * **Adorned with earrings.** (112) * **Constantly shining.** (115) * **Giving great rewards.** (115) * **Fed milk.** (116) * **Like a great ocean.** (117) * **Full of flowers.** (120) * **Marked with arrows.** (120)
Page Text
________________ चतुर्थ पर्व स्वच्छाम्बुवसना वाप्यो नीलोत्पलवतंसकाः । भान्ति पभानना यत्र लसत्कुवलयेक्षणाः ॥१२॥ यन्त्र मान सन्त्यज्ञा नागनाः शीलवर्जिताः । नानारामा निवेशाश्च नारामाः फलवर्जिताः॥११३॥ विनाहत्पूजया जातु जायन्ते न जनोत्सवाः । विना संन्यासविधिना मरणं यत्र नाङ्गिनाम् ॥११॥ सस्यान्यकृष्टपच्यानि यत्र नित्यं चकासति । प्रजानां सुकृतानीव वितरन्ति महत्फलम् ॥११५॥ यत्रोद्यानेषु पारवन्ते पयोदैालपादपाः । स्तनन्धया इवाप्राप्तस्थेमानो यस्नरक्षिताः ॥११६॥ महाधाविव सध्वाने स्फुरद्रस्ने वणिक्पथे । विचरन्ति जना यस्यां मत्स्या इव समन्ततः ॥११७॥ पमेष्वेव विकोशत्वं' प्रमदास्वेव भीरुता । दन्तच्छदेष्वधरता यत्र निस्त्रिंशतासिषु ॥१८॥ पाध्याकरग्रहौ यस्यां विवाहेन्वेव केवलम् । मालास्वेव परिम्लानिर्द्विरदेष्वेव बन्धनम् ॥११९॥ जनरत्युत्सुकै:क्ष्यं "वयस्कान्तं सपुष्पकम् । बाणाङ्कितं यदुद्यानं वधूवरमिव प्रियम् ॥१२०॥ उस नगरीमें अनेक वापिकाएँ स्त्रियोंके समान शोभायमान हो रही हैं क्योंकि स्वच्छ जल ही उनका वस्त्र है, नील कमल ही कर्णफूल है, कमल ही मुख है और शोभायमान कुवलय ही नेत्र हैं ॥ ११२ ।। उस नगरीमें कोई ऐसा मनुष्य नहीं है जो अज्ञानी हो, कोई ऐसी स्त्री नहीं है जो शीलसे रहित हो, कोई ऐसा घर नहीं है जो बगीचेसे रहित हो और कोई ऐसा बगीचा नहीं है जो फलोंसे रहित हो । ११३ ॥ उस नगरीमें कभी ऐसे उत्सव नहीं होते जो जिनपूजाके बिना ही किये जाते हों तथा मनुष्योंका ऐसा मरण भी नहीं होता जो संन्यासकी विधिसे रहित हो ॥११४।। उस नगरीमें धानके ऐसे खेत निरन्तर शोभायमान रहते हैं जो बिना बोये-बखरे ही समयपर पक जाते हैं और पुण्यके समान प्रजाको महाफल देते हैं ॥११५।। उस नगरीके उपवनोंमें ऐसे अनेक छोटे-छोटे वृक्ष (पौधे ) हैं जिन्हें अभी पूरी स्थिरता-दृढ़ता प्राप्त नहीं हुई है। अन्य लोग उनकी यत्नपूर्वक रक्षा करते हैं तथा बालकोंकी भाँति उन्हें पय-जल (पक्षमें दूध ) पिलाते हैं ॥११६।। उस नगरीके बाजार किसी महासागरके समान शोभायमान हैं क्योंकि उनमें महासागरके समान ही शब्द होता रहता है, महासागरके समान ही रत्न चमकते रहते हैं और महासागर में जिस प्रकार जलजन्तु सब ओर घूमते रहते हैं उसी प्रकार उनमें भी मनुष्य घूमते रहते हैं ॥११७। उस नगरीमें विकोशत्व-(खिल जानेपर कुड्मलबोडीका अभाव) कमलों में ही होता है. वहाँके मनष्यों में विकोशत्व-खजानोंका अभाव) नहीं होता। भीरुता केवल स्त्रियों में ही है वहाँके मनुष्यों में नहीं, अधरता ओठोंमें ही है वहाँके मनुष्योंमें अधरता-नीचता नहीं है। निस्त्रिंशता-खड्गपना तलवारों में ही है वहाँके मनुष्योंमें निखिलता-करता नहीं है। याच्या-वधूकी याचना करना और करप्रह-पाणिग्रहण (विवाहकालमें होनेवाला संस्कारविशेष) विवाह में ही होता है वहाँके मनुष्योंमें याच्या-भिक्षा माँगना और करग्रह-टैक्स वसूल करना अथवा अपराध होनेपर जंजीर आदिसे हाथोंका पकड़ा जाना नहीं होता। म्लानता-मुरझा जाना पुष्पमालाओंमें ही होता।म्लानता-मुरझा जाना पुष्पमालाओंमें ही है वहाँके मनुष्योंमें म्लानता-उदासीनता अथवा निष्प्रभता नहीं है और बन्धन-रस्सी वगैरहसे बाँधा जाना केवल हाथियों में ही है वहाँके मनुष्योंमें बन्धन-कारागार आदिका बन्धन नहीं है ॥११८-११९।। उस नगरीके उपवन ठीक वधूवर अर्थात् दम्पतिके समान सबको अतिशय प्रिय लगते हैं क्योंकि वधूवरको लोग जैसे • १. कर्णाभरणानि । -वतंसिकाः द०। २. चकासते म०, ल.। ३. ददति । ४. पयोऽन्यै-अ०, द०, स.,५०। ५. अप्राप्तस्थिरत्वाः । ६. यस्यां यादांसीव अ०, ५०, द०, म०, स०, ल०। ७. भण्डाररहितस्वम, पक्षे विकूडमलत्वम । ८. स्त्रीत्वं भौतिश्च । ९. नीचत्वं च । १०. निस्त्रिशत्वं खड़त्वम . पक्षे करत्व ।११. पक्षिभिः कान्तं च । १२. सपुष्पमस्तकम । १३. बाणः झिण्टिः वधूवरे, पक्षे शरः।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy