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The third chapter is about Prasa-Prasooti, the one who prevents the birth of a Jiva. He is called Prasenajit because he taught the ways to destroy or conquer Prasa. After him came Naabhiraaj, a wise and noble soul. He carried the burden of the world order, just like the great leaders of the past. His lifespan was one crore purvas and his height was five hundred and twenty-five Dhanush. His head was adorned with a crown, and his ears were decorated with earrings. He was as radiant as Mount Meru, with the sun and moon shining on its peak. His face, filled with pride, scorned the full moon with its beauty. His gentle smile revealed teeth that shone like saffron. Just as the Himalayas hold the banks of the Ganga, Naabhiraaj held his chest adorned with jewels and a necklace of gems. His arms, with their beautiful fingers and palms, were raised like the hood of a snake. His shoulders, adorned with armlets, resembled two horses carrying treasures with serpents. His waist was strong and stable, with a beautiful navel, and his bones were like a forest. He seemed like the middle world, holding the upper and lower parts, a vast expanse. He wore a belt around his waist, which made him look like the ocean, holding a jewel-studded island. His thighs, strong and round like a forest, were like pillars supporting the entire universe.
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________________ तृतीयं पर्व प्रसा-प्रसूतिः संरोधादिनस्तस्याः प्रसेवकः । तद्धानोपायकथनात् तजयाद् वा प्रसेनजित् ॥१५॥ तदनन्तरमेवाभूमामिः कुलधरः सुधीः । युगादिपुरुषैः पूर्वरुदूढा धुरमुखहन् ॥१५२॥ पूर्वकोटीमितं तस्य परमायुस्तदुच्छितिः । शतानि पञ्च चापानां पञ्चवर्गाधिकानि वै ॥१५३॥ मुकुटोद्भासिमू सौ कुण्डलाभ्यामलस्कृतः । सुमेरुरिव चन्द्रार्कसंश्लिष्टाधित्यको बभौ ॥१५॥ पार्वणं शशिनं गर्वात् स्खलयत्तन्मुखाम्बुजम् । स्मितोल्लसितदन्तांशुकेसरं भृशमावमौ ॥१५५॥ स हारभूषितं वक्षो बभाराभरणोज्ज्वल: । हिमवानिव गङ्गाम्बुप्रवाहपटितं तटम् ॥१५६॥ सदगुलितलौ बाहू सोऽधानागाविवोत्फणौ । केयूररुचिरावंसौ साही निधिघटाविव ॥१५॥ सुसंहतं दधौ मध्यं स्थेयों वज्रास्थिबन्धनम् । लोकस्कन्ध इवोर्ध्वाधोविस्तृतश्चारुनामिकम् ॥१५॥ कटीतट कटीसूत्रघटित स्म बिमति सः । रत्नद्वीपमिवाम्भोधिः पर्यन्तस्थितरत्नकम् ॥१५९॥ वज्रसारौ दधावूरू परिवृत्तौ सुसंहती। जगद्गृहान्सर्विन्यस्तसुस्थितस्तम्भसचिमौ ॥१६०॥ वे प्रसेनजित् कहलाते थे। अथवा प्रसा शब्दका अर्थ प्रसूति-जन्म लेना है तथा इन शब्दका अर्थ स्वामी होता है । जरायु उत्पत्तिको रोक लेती है अतः उसीको प्रसेन-जन्मका स्वामी कहते हैं (प्रसा+इन= प्रसेन ) इन्होंने उस प्रसेनके नष्ट करने अथवा जीतनेके उपाय बतलाये थे इसलिए इनका प्रसेनजित् नाम पड़ा था ॥१४६-१५१।। इनके बाद ही नाभिराज नामके कुलकर हुए थे, ये महाबुद्धिमान थे। इनसे पूर्ववर्ती युग-श्रेष्ठ कुलकरोंने जिस लोकव्यवस्थाके भारको धारण किया था यह भी उसे अच्छी तरह धारण किये हुए थे। उनकी आयु एक करोड़ पूर्वको थी और शरीरकी ऊँचाई पाँच-सौ पच्चीस धनुष थी। इनका मस्तक मुकुटसे शोभायमान था और दोनों कान कुण्डलोंसे अलंकृत थे इसलिए वे नाभिराज उस मेरु पर्वतके . समान शोभायमान हो रहे थे जिसका ऊपरी भाग दोनों तरफ घूमते हुए सूर्य और चन्द्रमासे शोभायमान हो रहा है । उनका मुखकमल अपने सौन्दर्यसे गर्वपूर्वक पौर्णमासीके चन्द्रमाका तिरस्कार कर रहा था तथा मन्द मुसकानसे जो दाँतोंकी किरणें निकल रही थीं वे उसमें केसर की भाँति शोभायमान हो रही थी। जिस प्रकार हिमवान् पर्वत गङ्गाके जल-प्रवाहसे युक्त अपने तटको धारण करता है उसी प्रकार नाभिराज अनेक आभरणोंसे उज्ज्वल और रत्नहारसे भूषित अपने वक्षःस्थलको धारण कर रहे थे। वे उत्तम अंगुलियों और हथेलियोंसे युक्त जिन दो भुजाओंको धारण किये हुए थे वे ऊपरको फण उठाये हुए सोके समान शोभायमान हो रहे थे। तथा बाजूबन्दोंसे सुशोभित उनके दोनों कन्धे ऐसे मालूम होते थे मानो सर्पसहित निधियोंके दो घोड़े ही हों। वे नाभिराज जिस कटि भागको धारण किये हुए थे वह अत्यन्त सुदृढ़ और स्थिर था, उसके अस्थिबन्ध वनमय थे तथा उसके पास ही सुन्दर नाभि शोभायमान हो रही थी। उस कटि भागको धारण कर वे ऐसे मालूम होते थे मानो मध्यलोकको धारण कर ऊर्ध्व और अधोभागमें विस्तारको प्राप्त हुआ लोकस्कन्ध ही हो। वे करधनीसे शोभायमान कमरको धारण किये थे जिससे ऐसे मालूम होते थे मानो सब ओर फैले हुए रनोंसे युक्त रत्नद्वीपको धारण किये हुए समुद्र ही हो। वे वनके समान मजबूत, गोलाकार और एकदूसरेसे सटी हुई जिन जंघाओंको धारण किये हुए थे वे ऐसी मालूम होती थीं मानो जगद्पी १. छेदनोपायः । २.-दुच्छ्यः १०, द०, स०, ५०, म०, ल.। ३. ऊर्श्वभूमिरधित्यका। ४.-णोज्ज्वलम् अ०, स०, ल०। ५. रुचिरी चांसो अ०, १०, म., स., ल०। ६. 'दृढसन्धिस्तु संहतः'। ७. स्थिरतरम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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