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The third Manu, born from the merit of the people, was named **Sīmankara**. His body was adorned with beautiful clothes and garlands, and he enjoyed all the pleasures of heaven, just like Indra. Wise teachers say his lifespan was as long as a lotus flower, and his height was 750 bows. When the **Kalpa** trees became scarce and bore little fruit, disputes arose among the people. **Sīmankara** Manu, with his wisdom, established boundaries for the **Kalpa** trees, ensuring that each group of people had access to a specific tree. This arrangement earned him the name **Sīmankara**, which means "one who sets boundaries." After an immeasurable number of years, the sixth Manu, **Sīmandhara**, was born. He was known for his pure mind and had a lifespan as long as a lotus flower. His face and eyes shone like a lotus, and his height was 725 bows. During his reign, the **Kalpa** trees became even more scarce, and the people fought fiercely, even pulling each other's hair. To restore peace, **Sīmandhara** Manu marked the boundaries of the **Kalpa** trees with other trees and shrubs. Then, after countless years, the seventh Manu, **Vimala-vahana**, appeared. His body was embraced by the goddess of fortune, and his lifespan was as long as a lotus flower.
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________________ तृतीयं पर्व पुनर्मन्वन्तरं तत्र संजातं पूर्ववक्रमात् । मनुः सीमंकरो जज्ञे प्रजानां पुण्यपाकतः ॥१०७॥ स चित्रवस्त्रमाल्यादिभूषितं वपुरुद्वहन् । सुरेनः स्वर्गलक्ष्म्येव भोगलक्ष्म्योपलालितः॥१०॥ 'कमलप्रमितं तस्य प्राहुरायुर्महाधियः । शानि सप्त पञ्चाशदुच्छायो धनुषां मत: ॥१०९॥ कल्पाध्रिपा यदा जाता विरला मन्दकाः फलैः । तदा तेषु विसंवादो बभूवैषां परस्परम् ॥११०॥ ततो मनुरसौ मत्वा वाचा सीमविधि व्यधात् । अतः सीमंकराख्यां तैलंम्मितोऽन्वर्थतां गताम् १११॥ पुनमन्वन्तरं प्राग्वदतिलय महोदयः । मनुः सीमंधरो नाम्ना समजायत पुण्यधीः ॥११२॥ नलिनप्रमितायुष्को नलिनास्येक्षणयुतिः । धनुषां पञ्चवर्गाप्रमुच्छ्रितः शतसप्तकम् ॥११३॥ अत्यन्तविरला जाताः माजा मन्दफला यदा। नृणां महान् विसंवादः केशाकेशि तदावृधत् ॥११॥ क्षेमवृत्तिं ततस्तेषां मन्वानः स मनुस्तदा । सीमानि तरुगुल्मादिचिह्नितान्यकरोत् कृती ॥११५॥ ततोऽन्तरमभूद् भूयोऽप्यसंख्या वर्षकोटयः । हीयमानेषु सर्वेषु नियोगेष्वनुपूर्वशः ॥११६॥ तदन्तरम्यतिक्रान्तावभूद् विमलवाहनः । मनूनां सप्तमो भोगलक्ष्यालिङ्गितविग्रहः ॥११७॥ पभप्रमितमस्यायुः पनाश्लिष्टतनोरभृत् । धनुःशतानि सप्तव तनूस्सेधोऽस्य वर्णितः ॥११॥ देकर प्रजाका कल्याण किया था इसलिए इनका क्षेमंधर यह सार्थक नाम प्रसिद्ध हुआ था ॥१०२-१०६।। इनके बाद पहलेकी भाँति फिर भी असंख्यात करोड़ वर्षोंका मन्वन्तर पड़ा। फिर क्रमसे प्रजाके पुण्योदयसे सीमंकर नामके कुलकर उत्पन्न हुए । इनका शरीर चित्र-विचित्र वस्त्रों तथा माला आदिसे शोभायमान था। जैसे इन्द्र स्वर्गकी लक्ष्मोका उपभोग करता है वैसे ही यह भी अनेक प्रकारकी भोगलक्ष्मीका उपभोग करते थे। महाबुद्धिमान् आचार्योंने उनकी आयु कमल प्रमाण वर्षोंकी बतलायी है तथा शरीरकी ऊँचाई सात सौ पचास धनुषकी। इनके समयमें जब कल्पवृक्ष अल्प रह गये और फल भी अल्प देने लगे तथा इसी कारणसे जब लोगोंमें विवाद होने लगा तब सीमंकर मनुने सोच-विचारकर वचनों-द्वारा कल्पवृक्षोंकी सीमा नियत कर दी अर्थात् इस प्रकारकी व्यवस्था कर दी कि इस जगहके कल्पवृक्षसे इतने लोग काम लें और उस जगहके कल्पवृक्षसे उतने लोग काम लें। प्रजाने उक्त व्यवस्थासे ही उन मनुका सीमंकर यह सार्थक नाम रख लिया था॥१०७-११॥ इनके बाद पहलेकी भाँति मन्वन्तर व्यतीत होनेपर सीमन्धर नामके छठे मनु उत्पन्न हुए। उनकी बुद्धि बहुत ही पवित्र थी। वह नलिन प्रमाण आयुके धारक थे, उनके मुख और नेत्रोंकी कान्ति कमलके समान थी तथा शरीरकी ऊँचाई सात सौ पच्चीस धनुषकी थी। इनके समयमें जब कल्पवृक्ष अत्यन्त थोड़े रह गये तथा फल भी.बहुत थोड़े देने लगे और उस कारणसे जब लोगोंमें भारी कलह होने लगा, कलह ही नहीं, एक-दूसरेको बाल पकड़-पकड़कर मारने लगे तब उन सीमन्धर मनुने कल्याण स्थापनाकी भावनासे कल्पवृक्षोंकी सीमाओंको अन्य अनेक पृक्ष तथा छोटी-छोटी झाड़ियोंसे चिह्नित कर दिया था ॥११२-११५।। इनके बाद फिर असंख्यात करोड़ वर्षोंका अन्तर हुआ और कल्पवृक्षोंकी शक्ति आदि हरएक उत्तम वस्तुओंमें क्रम-क्रमसे घटती होने लगी तब मन्वन्तरको व्यतीत कर विमलवाहन नामके सातवें मनु हुए। उनका शरीर भोगलक्ष्मीसे आलिङ्गित था, उनको आयु पद्म-प्रमाण वर्षोंकी थी। १. चत्वारिंशच्छ्न्याधिकं चतुर्दशप्रमाणचतुरशीतिसंगुणनं कमलवर्षप्रमाणम् । २. प्रापितः । ३. पञ्चत्रिंशत् शून्यानं द्वादशप्रमितचतुरशीतिसंगुणनं नलिनवर्षप्रमाणम् । ४. 'वृष वृद्धी' द्युतादित्वात् "द्युम्यो लुङ्" इति सूत्रेण लुङि परस्मैपदमपि । ५. त्रिशच्छ्न्याषिको दशप्रमाणचतुरशीतिसंवर्गः पद्मवर्षप्रमाणम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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