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First, the first chapter, the origin of the Guru stream, is free from suffering. It is made by the virtuous deeds of the virtuous, like a cloud that has rained. ||110|| It is the mother of mental clarity, a collection of auspicious things. It is the reflection of the three worlds, laughing with the beauty of a mirror. ||111|| Like a great branch of the Kalpa tree, which is very high and gives desired fruits, it is taken from the Shruta Skandha. ||112|| Like the waves of a vast ocean, it is full of great sounds and vast meanings, the first Anuyoga, which is deep. ||113|| It is the one that accepts all the principles, rejects false beliefs, is the mother of the enthusiasm of the virtuous, and increases the taste of renunciation. ||114|| This wonderful, divine, great story of the ultimate truth, is connected with many stories, composed by the virtuous ancient sages. ||115|| It is auspicious, brings fame and welfare, and gives the fruits of enjoyment and liberation. I will speak of it, following the previous teachers. Listen carefully, O virtuous men. ||116|| Wise men should definitely describe the characteristics of the story, the speaker, and the listeners before the beginning of the story. ||117|| The telling of Dharma, Artha, and Kama, which are useful for the purpose of liberation, is called a story. Among them, wise men consider the story of Saraka to be the best. ||118||
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प्रथमं पर्व गुरुप्रवाहसंभूतिमपकां तापविच्छिदम्' । कृतावतारा कृतिभिः पुण्यां न्योमापगामिव ॥११०॥ चेतःप्रसादजननीं कृतमङ्गलसंग्रहाम् । क्रोडीकृतजगद्दिम्यां हसन्ती दर्पणश्रियम् ॥११॥ कल्पानिपादिवोत्तुङ्गादभीष्टफलदायिनः । महाशाखामिवोदनां श्रुतस्कन्धादुपाहृताम् ॥११२।। प्रथमस्यानुयोगस्य गम्भीरस्योदधेरपि । वेलामिव बृहद्ध्वानां प्रसृतार्थमहाजलाम् ॥१३॥ "आक्षिप्ताशेषतन्त्रार्थी विक्षिप्तपरशासनाम् । सतां संवेगजननी निवेदरसबंहिणीम् ॥११॥ अद्भुतामिमां दिव्यां परमार्थबृहत्कथाम् । लम्भैरनेकैः संहन्धां गुणाव्यैः पूर्वसूरिमिः ॥११५॥ यशःश्रेयस्करी पुण्यां भुक्तिमुक्तिफलप्रदाम् । पूर्वानुपूर्वीमाश्रित्य वक्ष्ये अणुत सज्जनाः ॥१६॥
नवमिः कुलकम् कथाकथकयोरन श्रोतणामपि लक्षणम् । ब्यावर्णनीयं प्रागेव कथारम्भे मनीषिमिः ॥११७॥ पुरुषार्थोपयोगित्वात्रिवर्गकथनं कथा । तत्रापि सरकथां धामामनन्ति मनीषिणः ॥११८॥
कान्ति नामक गुण) से युक्त है, फलों ( मधुर फल, स्वर्ग मोक्षादिकी प्राप्ति ) से शोभायमान है, आर्यों (भोगभूमिज मनुष्य, श्रेष्ठ पुरुषों)-द्वारा सेवित है, मनोहर है, और उत्तम है । अथवा जो धर्मकथा बड़े सरोवरके समान प्रसन्न (स्वच्छ, प्रसादगुणसे सहित) है, अत्यन्त गम्भीर (अगाध, गूढ़ अर्थसे युक्त ) है, निर्मल (कीचड़ आदिसे रहित, दुःश्रवत्व आदि रोगोंसे रहित ) है, सुखकारी है, शीतल है, और जगत्त्रयके सन्तापको दूर करनेवाली है । अथवा जो धर्मकथा आकाशगंगाके समान गुरुप्रवाह (बड़े भारी प्रवाह, गुरुपरम्परा) से युक्त है, पंक (कीचड़, दोष) से रहित है, ताप (गरमी, संसारभ्रमणजन्य खेद) को नष्ट करनेवाली है, कुशल पुरुषों (देवों, गणधरादि चतुर पुरुषों ) द्वारा किये गये अवतार (प्रवेश, अवगाहन) से सहित है और पुण्य (पवित्र, पुण्यवर्धक) रूप है। अथवा जो धर्मकथा चित्तको प्रसन्न करने, सब प्रकारके मंगलोंका संग्रह करने तथा अपने-आपमें जगत्त्रयके प्रतिबिम्बित करनेके कारण दर्पणकी शोभाको हँसती हई-सी जान पड़ती है। अथवा जो धर्मकथा अत्यन्त उन्नत और अभीष्ट फलको देनेवाले श्रुतस्कन्धरूपी कल्पवृक्षसे प्राप्त हुई श्रेष्ठ बड़ी शाखाके समान शोभायमान हो रही है। अथवा जो धर्मकथा, प्रथमानुयोगरूपी गहरे समुद्रकी वेला (किनारे) के समान महागम्भीर शब्दोंसे सहित है और फैले हुए महान अर्थ रूप जलसे युक्त है। जो धर्मकथा स्वर्ग मोक्षादिकेसाधकसमस्त तन्त्रोंका निरूपण करनेवाली है, मिथ्यामतको नष्ट करनेवाली है, सज्जनोंके संवेगको पैदा करनेवाली और वैराग्य रसको बढ़ानेवाली है। जो धर्मकथा आश्चर्यकारी अर्थोंसे भरी हुई है, अत्यन्त मनोहर है, सत्य अथवा परम प्रयोजनको सिद्ध करनेवाली है, अनेक बड़ी-बड़ी कथाओंसे युक्त है, गुणवान पूर्वाचार्यों-द्वारा जिसकी रचना की गयी है । जो यश तथा कल्याणको करनेवाली है, पुण्यरूप है और स्वर्गमोक्षादि फलोंको देनेवाली है ऐसी उस धर्मकथाको मैं पूर्व आचार्योंकी आम्नायके अनुसार कहूँगा। हे सज्जन पुरुषो, उसे तुम सब ध्यानसे सुनो ॥१०८-११६।। बुद्धिमानोंको इस कथारम्भके पहले ही कथा, वक्ता और श्रोताओंके लक्षण अवश्य ही कहना चाहिए ॥११७॥ मोक्ष पुरुषार्थके उपयोगी होनेसे धर्म, अर्थ तथा कामका कथन करना कथा कहलाती है। जिसमें
१. तापविच्छिदाम् अ०, प० । २. अवतारः अवगाहः। ३. क्रोडीकृतं स्वीकृतम्। ४. महाध्वानां ल०, द०,५०,स०। ध्यानः शब्दपरिपाटी। ५. आक्षिप्तः स्वीकृतः । ६. तन्त्र सिद्धान्तः । ७. विक्षिप्तं तिरस्कृतम् । ८. परमार्था बहत्कथाम् स०, द०, ल०, म०। ९. श्रेयस्करां स० | १०. म्ना अभ्यासे ।