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चिदानंदराइ सुखसिंधु है अनादि ही को, निहचे निहारि ज्ञानदिष्टि धार लीजिये। नय विवहार ही ते करम कलंक पंक, जाके लागि आए तोऊ सुद्धता गहीजिये। जैसे दिष्टि देखे सब ताके तैसी फल होइ, सुध' अवलोक सुधउपयोगी जिया 'दीप' कहे देखियतु आतमसुभाव ऐसो, सिद्ध के समान ज्ञानभावना करीजिये ।।१६।। मेटत विरोध दोउ नयनको पच्छपात' महा निकलंक स्यातपद अंकधारणी। ऐसी जिनवाणी के रमैया समैसार पावें, ज्ञानज्योति लखें करें करमनिवारणी। सिद्ध है अनादि यह काहू पै न जाइ खंड्यो अलख अखंड रीति जाकी सुखकारणी। लहिके सुभाव जाको रहि हैं सुथिर जेही, तेही जीव 'दीप' लहें दशा भवतारणी।।१७।। मानि परपद आपो भूले ए अनादि ही के, ऐसे जगवासी निजरूप न संभारे हैं। घट ही में सासतो निरंजन जो देव बसे, ताको नहीं देखे तातै हित को निवारे हैं। जोति निजरूप की न जागी कहुँ हिये माहिं, यातें सुखसागर सुभाव को विसारे हैं। देशना जिनेंद्र 'दीप' पाय जब आपा" लखे, होइ परमातमा अनंत सुख धारे हैं ||१८|| १ त्रिकाली शुद्ध निजात्मा, २ मुद्रित पाठ है-पछितात (पक्षपात) एकान्त दृष्टि, ३ स्वरूप धरने वाली, ४ मुद्रित पाठ 'निजवाणी है, ५ अखण्ड ज्ञायक स्वभाव, ६ स्वतः सिद्ध.७ किसी के द्वारा. ८ विनाश, ६ प्राप्त कर. १० शाश्वत. ११ आत्मानुभव कर