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की परिणति अनन्तगुण में कहिये । कोऊ गुण की परिणति कोऊ गुण में न कहिये। जिस गुणकी परिणति जिस गुण में कहिये, विस' गुण के द्वारा सब गुण में आए: और गुण में कहिये तब और गुण की भई । तातें द्रवत के द्वारा द्रवत की है; तातै परिणति का परम विलास परम है; अनंत अतिसय को लिये है। द्रवत गुणपुरुष अपनी परिणति का विलास करे है सो महिमा अपार है; सारसुख उपजे है। इन दोऊ के संभोग ते आनन्द नामा पुत्र भयो है, तहां सब गुण परिवार के परम मंगल भयो है।
आगे अगुरुलधु अपनी परणतितिया का विलास करे
है सो कहिये हैअगुरुलघु का विकार षट्गुणी वृद्धि हानि है। षट्गुणी वृद्धि अपने अनन्तगुण में परणवन ते होय है। अनन्तगुण परणवन में अनन्तगुण का रस प्रगटे है। अनन्त भेद-भाव को लिये अनन्तरस, अनन्तप्रभुत्व, अनन्त अतिसय, अनन्तनृत्य, अनन्त थट-कलारूप सत्ताभाव प्रभाव, विलास ता विलास में नवरस वरते हैं। सो सब गुण, गुण का रस, नव षट्गुणी वृद्धि में सधे है सो कहिये है।
सत्तागुण में नवरस साधिये हैप्रथम सत्ता में सिंगार रस साधिये है। सत्ता सत्तालक्षण को धरे है। सत्ता को सिंगार अनन्तगुण है। सत्ता सासती है। सत्ता में ज्ञान सब ज्ञेय को ज्ञाता, अनन्तगुण ज्ञाता जानन प्रकाश सर्वशक्तिधारी. स्वसंवेदरसधारी अनन्त महिमा-निधि सब अनन्त द्रव्यगुणपर्याय जामें व्यक्त भये, ऐसो ज्ञान आभूषण सत्ता पहरयो सत्तासिंगार भयो । निर्विकल्पदरसन निर्विकल्परसधारी, १ उरा, २ अन्य, दूसरे. ३ हुई, ४ चमत्कार. ५ श्रृंगार रस. ६ शाश्वत, नित्य
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