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वस्तु-सिद्धि- वस्तु की सिद्धि स्वयं उपादान से है। वस्तुतः उपादान के दो भेद हैं- क्षणिक उपादान तथा शाश्वत उपादान । "अष्टसहस्त्री" (पृ० २१०) में कहा गया है
त्यतात्यक्तात्मरूपं यत् पूर्वापूर्वेण वर्तते। कालत्रयेपि तद्रव्यमुपादानमिति स्मृतम्।। यत्स्वरूपं त्यजत्येव यन्न त्यजति सर्वथा। तन्नोपादानमर्थस्य क्षणिकं शाश्वतं यथा !!
अर्थात- द्रव्य में गुण तो पहले से ही विद्यमान रहते हैं, किन्तु परिणाम नये-नये होते रहते हैं | जो त्यक्तस्वभाव पर्याय रूप है, उसे परिणाम कहते हैं। वह व्यतिरेक स्वभाव है। जो अत्यक्तस्वमाव है, वह गुणरूप तथा अन्वय स्वभाव है। वस्तुतः द्रव्य परिणाम को त्यागता है. किन्तु गुण को नहीं छोड़ता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि परिणाम क्षणिक उपादान है और गुण शाश्वत उपादान है। वस्तु उपादान से स्वतः सिद्ध है।
(चिदविलास, पृ० ४०, ४१) ___ "चिदविलास' के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पं० दीपचन्द कासलीवाल प्राकृत, संस्कृत, दर्शनशास्त्र, न्यायशास्त्र एवं अध्यात्मशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे तथा सभी उपयोगी महान शास्त्रों से सार ग्रहण कर उन्होंने "अध्यात्मपंचसंग्रह" आदि ग्रन्थों की रचना कर दूंदारी किंवा देशी भाषा के माध्यम से घर-घर में अध्यात्म का प्रचार-प्रसार किया था।
प्रस्तुत प्रकाशन हेतु भाई श्री पं० राजमलजी का विशेष आभार है, जिनकी सतत प्रेरणा तथा अनुरोध से मैं इस संकलन के सम्पादन में प्रवृत्त हुआ । यही नहीं, नये-नये अर्थ सुझाने में भी उनका मार्ग-दर्शन रहा है जो कहीं-कहीं उपयोगी भी सिद्ध हुआ है। अधिक क्या कहूँ? सम्पादन से ले कर प्रकाशन तक का सम्पूर्ण प्रदेय उनका ही है। यदि इसके सम्पादन में तथा शब्दार्थ में कोई भूल रह गई हो, तो विद्वान् पण्डित तथा सुधी पाठक वर्ग मुझे अल्पज्ञ समझ कर यथास्थान सुधार कर लेंगे। आशा है विद्धत्-जगत में अवश्य ही यह चर्चित होगा।