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कहते हैं कि जन सामान्य रुढ़ि की भाँति इनका पालन करते हैं, वास्तविक विधि नहीं जानते हैं। उनके की शब्दों में
मूढ़न को मूढ़ महारुढ़ि ही में विधि जाने, साँच न पिछाने कहो कैसे सुख पाये है।1५11 माया की मरोर ही तैं टेढ़ा-टेढो पांव धरे, गरव को खारि महीं नरमी गहतु है। विनै को न भेद जाने विधि न पिछाने मूढ़, अरुझ्यो बड़ाई में न धरम लहतु है।। (उपदेश०, ५२)
वास्तविकता यह है कि इन बाह्य आलम्बनों के होने पर भी यदि अन्तरंग में सच्चा प्रेम न हो, तो शारीरिक क्रियाओं के होने पर भी परम सुख रूप फल की प्राप्ति नहीं होती । अतः पं० कासलीवालजी कहते हैं कि निज शुद्धात्म स्वभाव का भान, परिचय तथा प्रीति हुए बिना आत्मा का श्रद्धान नहीं होता और बिना प्रतीति के ज्ञानानन्द रस नहीं ढलता है। उनके ही शब्दों में
जहाँ प्रीति होय याकी सोई काज रसि पड़े, बिना परतीति यह भवदःख भरे है। ताः नाम माहिं रुचि धर परतीति सेती, सरधा अनाये तेरो सबै दुख टरे है। (उपदेश०, पद्य ६१)
आत्मध्यान- वर्तमान काल में आत्मध्यान या योग-साधना के लिए तरह-तरह के शिविर तथा ध्यान-साधना-केन्द्र होने लगे हैं। यथार्थ में आत्मध्यान के लिए निज स्वभाव ही साधन है। ध्यान की सिद्धि न तो आसन से है, न जप से है, न भोजन-पान से है और न किसी बाहरी आलम्बन से है। ये सभी प्रकार के बहिरंग अवलम्बन ध्यान में तभी सहायक हो सकते हैं, जब इन सब का लक्ष्य छोड़ कर एक मात्र परम निरपेक्ष परमात्मतत्त्व का, निरालम्ची का अवलम्बन लिया जाए। कवि के शब्दों में
पर की कलोल में न सहज अडोल पावे, याही ते अनादि कीना भव भटकावना। (स्वरूपानन्द, पध १६)
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