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अतः व्यवहार से पुरुषार्थ का साधक उपयोग है। उपयोग के दो भेद हैं- वस्तु का सामान्य अवलोकन दर्शन तथा विशेष अवलोकन ज्ञान है। उपयोग के इन दो भेदों के कारण आचरण के भी दो भेद कहे
___ सामान्य स्व वस्तु सत्ता की सम्यक प्रतीति रूप सम्यक्त्वाचरण तथा विशेष रूप से स्व वस्तु में स्थिरता रूप आचरण चारित्राचरण है। इस प्रकार सामान्य, विशेष के भेद से आचरण के दो भेद हैं।
(आत्मावलोकन, पृ० १०१) चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र अंकुर' रूप में गर्भ में रहता है, बाहर में प्रकट नहीं होता है। व्यवहार चारित्र पंचम गुणस्थान में देश चारित्र रूप से प्रकट होता है। सकल चारित्र संयम के धारी मुनि के ही होता
विनय मोक्ष का द्वार है
पं. दीपचन्द कासलीवाल “उपदेश सिद्धान्त रत्न" में अर्हन्त, सिद्ध, श्रुत, सम्यक्त्व, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनबिम्ब, जिनधर्म तथा चतुर्विध संघ इन दश की पाँच प्रकार से विनय करने का स्पष्ट विधान करते हैं। वे कहते हैं- धर्म का मूल विनय है। जिनदेव के नाम-स्मरण की भी बड़ी महिमा है। कवि के शब्दों में
नाम अविकार पद दाता है जगत माहिं, नाम की प्रभुता एक भगवान जानी है।।५।। महिमा हजार दस सामान्य जु केवली की, ताके सम तीर्थंकर देव जी की मानिए। तीर्थंकरदेव मिलें दसक हजार ऐसी, महिमा महत एक प्रतिमा की जानिए। सो तो पुण्य होय तब विधि सों विवेक लिए, प्रतिमा के ढिंग जाय सेवा जब ठानिये । नाम के प्रताप सेती तुरत तिरे हैं भव्य, नाम-महिमा विनै रौं अधिक बखानिये || (उपदेश०.६०)
जहाँ पं० दीपचन्द कासलीवाल जिन नामस्मरण, जिनमक्तिपूजा विनय आदि को गृहस्थ के लिए आवश्यक बताते हैं, वहीं यह भी
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