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औगुण की चाहि हवे तो औगुण महतु हैं। काक ज्यों अमेधि' गहि मन में उमाह' धरे, हंस चुगे मोती ऐसे भाव सों सहितु हैं। भावना स्वरूप भाये भवपार पाइयतु, ध्याये परमातमा को होत यों महतु हैं। तातें शुद्ध माद करि तलिये अशुद्ध भाव, यह सुख मूल महा मुनिजन कहतु हैं ।।३।। करम संजोग सो विभाव भाव लगे आये, परपट आपो मानि महादुख पाये हैं। कल्ली उकति' जाके अरथ विचारि अब, जागि तोको जो तो यह सुगुण सुहाये हैं।। जामें खेद भय रोग कछु न वियोग जहां, चिदानंदराय में.अनंत सुख गाये हैं। सबै जोग जुर्यो अब भावना स्वरूप करि, ऐसे गुह बैन कहे भव्य उर आये हैं ।।१४।। पाय के प्रभुत्व प्रभु सेवा कीजे बार-बार, सार उपकार करि परदुख हरि लीजिये। गुणीजन देखिके उमाह धरि मन मांहि, विनहीं सों राग करि विनरूप- कीजिये। चिदानंद देव जाके संग सेती पाइयतु, तेरे परमातमा सो तामें मन दीजिये। तिया सुत लाज मोह हेतु काज वहै मति जाही, ताही" भांति ते स्वरूप शुद्ध कीजिये ।।५।। कह्यो मानि मेरो पद तेरो कहुं दूरि नाहि,
१ अस्थि, २ उमंग, ३ भावकर्म (राग, द्वेष, मोह), ४ दिव्यध्वनि जिनवाणी. ५ शुद्धात्म स्वम्प की भावना, ६ रहस्यमय, ७ उनसे ही, ८ उन रूप. ६ वही. १० उसी
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