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अंतर में लगनि अतीव धरे धारणा सो महा अनुराग भाव ताही माहि धर्यो है।। जहां-जहां जाको संग तहां-तहां रंग, एक रस-रीति विपरीति भाव हर्यो है। ऐसो बहु मान अंग विनै का बखान्यो सुध ज्ञानवान जीव हित जानि यह कर्यो है। ।५४ ।। गुण को बखानि जाके जस को बढावे महा, जाकी गुण महिमा दिदावे बार-बार है। जाही को करत अति गुणवान ज्ञानवान, कथन विशेष जाको करे विसतार है। रहि के निसंक नाही बंक' हू नमन माहि, करत अतीव थुति हरष अपार है। गुणन को वरणन तीजो अंग विनै को, जाको किये बुध पुण्य लहे जगसार है।।५५ ।। अवज्ञा वचन जाको कहूं न कहत भूलि, निंदा बार-बार गोप्य, गुण को गहिया है। धरम को जस जाको परम सुहावत है, धरम को हित हेतु हिये में चहिया है।। किये अवहेल' तातें लगत अनेक पाप, ऐसो उर जानि जाके दोष को दहिया है। आपनी सकति जहां निंदा सब मेटि डारे, ऐसा विनैभाव जातः पुण्य को लहिया है।५६ ।। जाके उपदेश सेती धरम को लाभ होय, सो ही परमातमा यो ग्रंथन में गायो है।
१ वक्र, टेढा, २ चाह, अभिलाषा, ३ तिरस्कार, ४ दूर किया. जलाया, ५ विनय भाव से उत्पन्न
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