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दोहा
सकल ग्रंथ को मूल यह अनुभव करिये आप। आतम आनंद ऊपजे, मिटे महा भव-ताप | १४ ||
सवैया
करि करतूति केउ करम की चेतना में, व्यापकता धारि हवै हैं करता करम के । शुभ वा अशुभ जाको आप के सुफल होत, सुख-दुख मानि भेद लहें न धरम के ।। ज्ञान शुद्ध चेतना में करम-करम फल, दोऊ नहीं दीसे भाव निज ही शरम' के । कहे 'दीपचंद' ऐसे भेद जानि चेतना के, चेतना को जाने पद पावत परम के ।।१५।। वेद के पढ़े तैं कहा स्मृति हू पढे कहा, पुराण पढ़े ते कहा निज तत्त्व पायो है। बहु ग्रंथ पढ़ें कहा जाने न स्वरूप जो तो, बहोत क्रिया के किये देवलोक थावे" है ।। तप के तपे हू ताप होत है शरीर ही को, चेतना -- निधान कहूं हाथ नहीं आवे है । कहे 'दीपचंद' सुखकंद परवेस' किये, अमर अखंड रूप आतमा कहावे है ||१६|| वेद निरवेद" अरु पढे हूं अपढ महा, ग्रंथन को अरथ सोहू वृथा सब जानिये । भले भले काज जग करिबो अकाज जानि,
१ सुख, आनन्द, २ परमात्मा ३ बहुत ४ पाते हैं स्थित होते हैं, ५ संताप, पीड़ा, ६ प्रवेश ७ स्मृति, ८ मी,
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