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पर परिणाम त्यागि
हरे भ्रम भाव ज्ञान
लखे आपा आप मांहि
तत्व की सँभार करे, गुण के धरैया हैं। राग-दोष भाव नाहिं,
सुद्ध उपयोग एक माव के करैया हैं।
स्थिरता सुरूप ही की स्वसंवेद परम अतेंद्री सुखनीर के देव भगवान सो सरूप लखे ऐसे ज्ञानवान भवसिंधु के तरैया हैं |
घट ही में,
(ज्ञानदर्पण, पद्म २१ ) इस प्रकार इन अध्यात्म रचनाओं में दृष्टि में शुद्ध स्वरूप भासित होने के कारण शुद्धता की दृष्टि से शुद्धोपयोगी सम्यग्दृष्टि का वर्णन किया गया है। इतना ही नहीं, पं. दीपचन्द कासलीवाल स्पष्ट शब्दों में कहते हैं- "भाव की अशुद्धता होने पर महाव्रती होने पर भी सुद्धोपयोगी तथा पवित्र आत्मा नहीं होता।" वास्तव में ज्ञान - आनन्द स्वभाव की ओर ही जिसका उपयोग है और ज्ञानाभ्यास के द्वारा जो अपनी ज्ञान-निधि की सहज सम्हाल करता रहता है, वही ज्ञानी है। क्योंकि "ज्ञान उपयोग में सरूप की संभार है" ।
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भावन में, ढरैया हैं।
तथा - बहु विसतार कहु कहाँ लौं बखानियतु यह भववास जहाँ भाव की अशुद्धता त्यागि गृहवास है उदास महाव्रत धारें, यह विपरीत जिनलिंग माहिं सुद्धता करम की चेतना में शुभउपयोग सधै, ताह में ममत ताके तातें नाही सुद्धता । वीतराग देव जाको यो ही उपदेश महा,
यह मोखपद जहाँ भाव की विशुद्धता ।। (ज्ञानदर्पण, पद्य २६) अतः सद्गृहस्थ, त्यागी-व्रती उदासीन हो कर एक मात्र
अखण्ड, ज्ञायक, सहज समरसी चिदानन्दप्रभु का अवलोकन करें- यही उपदेश है । कवि के शब्दों में
देवन को देव सो तो सेवत अनादि आयो, निजदेव सेवे बिनु शिव न लहतु है।
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