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के समय लगभग बारहवीं शताब्दी तक जिन-मन्दिर में सार्वजनिक रूप से पंचामृताभिषेक का प्रचलन नहीं था। अतः आचार्य जिनसेन ने "महापुराण" में, पं. मेधावी ने “धर्मसंग्रह प्रावकाचार" में, आचार्य सकलकीर्ति ने "प्रश्नोत्तर श्रावकाचार" मे, गुणभूषण ने “गुणभूषण श्रावकाचार" में तथा पं. राजमल्ल ने "लाटी संहिता" में पंचामृताभिषेक का वर्णन नहीं किया है। सत्संग, उपकार तथा नाम जपने का अवश्य समर्थन किया गया है।
शुद्धभाव- अध्यात्मप्रधान प्रायः सभी रचनाओं में मोक्षमार्ग, उपयोग तथा ध्यान के प्रकरणों में शुद्ध-अशुद्ध भाव का निरूपण किया गया है। पं. दीपचन्द जी कहते हैं कि उपयोग की चंचलता से भावों में अशुद्धता प्रकट होती है। उनके ही शब्दों में
सहज आनंद पाइ रह्यो निज में लो लाई, दौरि-दौरि ज्ञेय में धुकाइ क्यों परतु है। उपयोग चंचल किए ही अशुद्धता है, चंचलता मेरे चिदानंद उघरतु है। अलख अखंड जोति भगवान दीसत है, नै एक हैं देखि ज्ञाननैन उघरतु है। सिद्ध परमात्मा सों निजरूय आत्मा है, आप अवलोकि 'दीप' शुद्धता करतु है।। (ज्ञानदर्पण १६)
स्वसंवेदन ज्ञान में सहज अखण्ड ज्ञान-आनन्द स्वभाव का अनुभव करने वाले ज्ञानी पुरुष अपने आप में राग-द्वेष से रहित वीतराग, चिदानन्द चैतन्य का ही अवलोकन करते हैं। अतः उनको शुद्धोपयोगी कहा जाता है। यहाँ पर "शुद्धोपयोग" का अर्थ “वीतराग परिणति" (चरणानुयोग में वर्णित) ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि जिनागम में 'शुद्धध्येयत्वात्', 'शुद्धालम्बनत्वात् तथा 'शुद्धपरिणमनत्वात्' (चारित्र) इन तीन प्रकार से शुद्धता का वर्णन किया गया है । चतुर्थ गुणस्थानवी सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी जीव में ध्येय की शुद्धता से तथा कथंचित् आलम्बन की शुद्धता से शुद्धोपयोग घटित होता है। दूसरे शब्दों में आंशिक वीतरागता कही जाती है। "ज्ञानदर्पण' में कहा गया है -
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