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पुण्यपाप भाव यहै' हेय करि जानत है, तेई ज्ञानवंत जीव पावें निजरूप हैं।।४।।
दोहा अतुल अविद्या वसि परे, धरें न आतमज्ञान । पर परणति में पगि रहे कैसे वै निरवान।।५।।
सवैया मानि पर आपो प्रेम करत शरीर सेती, कामिनी कनक मांहि करे मोह भावना। लोक लाज लागि मूद आप जे अकाज करे, जाने नहीं जे-जे दुख परगति पावना ।। परिवार यार करिब पार पहा. बिनु ही विवेक करे काल का गमावना। कहे गुरु ग्यान नाव बैठि भवसिंधु तरि, शिवथान पाय सदा अचल रहावना ।।६।। करम अनेक बांधे चरम शरीर काजि, धरम अनूप सुखदाई नाहिं करे है। मोह की मरोर ते न स्वपर विचार पावे, दुद' ही में ध्यावे यातें भव दुख भरे है।। आप को प्रताप जाको करे नहीं परकाज, सोई तो निगोद मांहि कैसे अनुसरे है। कहे 'दीपचंद' ,गुणवृंदधारी चिदानंद, आप पद जानि अविनासी पद धरे है।।७।। मेरो देह मेरो गेह मेरो परिवार यह
१ यह. २ मुद्रित पात है-घंध ही,
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