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आरति को ध्यान धारि तिरजंच थाये हैं।। रौद्र ध्यान सेती महा नारकी भये हैं जहां, विविध अनेक दुख घोर वीर पाये हैं। संसारी मुक्त दोउ भये एक ध्यान ही ते. सुद्धध्यान धार जो तो स्वगुण सुहाये हैं।।२५।। आप अविनासी सुखरासी हैं अनादि ही को, ध्यान नहीं धऱ्या तातै फिर्यो तू अपार है। अब तू सयानो होहु सुगुरु बतावतु है, आप ध्यान धरे तो ही' लहे भवपार है।। चिदानन्द जाका अविनासी राज दे हैं यातें गुरुदेव यो बखान्यो ध्यान सार है। अतुल अबाधित अखंड जाकी महिमा है, ऐसो चिदानंद पावे याको उपकार है । (२६ ।। साम्यभाव स्वारथ जु समाधि जोग चित्तरोध, शुद्ध उपयोग की ढरणि ढार ढरे है! लय प्रसंज्ञात' में न वितर्क वीचार आवे, वितर्क वीचार" अस्मि- आनंदता करे है। पर को न अस्मि' कहे पर को न सुख लहे, आप को परखि के विवेकत्ता को धरे है। आतम धरम में अनंत गुण आतमा के निहचे में पर पद परस्यो न परे है।।२७।। १ मुद्रित पाठ है- तो तौ, २ शुद्धोपयोग में पर्याय सतत द्रव्य की ओर ढलती अनुभव में आती है, ३ परिणामों की लीनता, ४ जाननहारे को जान कर तन्मय समाधिस्थ होना, ५ समाधि के १३ भेदों में से एक वितर्कानुगत समाधि. ६ वीतराग निर्विकल्प समाधि, ७ स्वपद की प्रतीति, ८ स्वरूपमग्नता, ६ आनन्दानुगत समाधि, १० निरस्मिदानुगत समाधि, ११ विवेकरण्याति समाधि (विशेष जानकारी के लिए 'चिदविलास का अध्ययन आवश्यक है)। १२ मुद्रित पाठ "परस्यौ" है।
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