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संत अनेक तिरे इह रीति सों, याकं गहे तू अमर कहावे ।।५।। चिर ही ते देव चिदानंद सुखकंद वणो, धरे गुणवृंद भवफंद न बताइये। महा अविकार रसमें सार तुम राजत हो महिमा अपार कहोकहांलगि गाइये।। सुख को निशान भगवान अमलान एक, परम अखंड जेति उर मेंअनाइये। अतुल अनूप चिदरूप तिहुँलोक भूप. ऐसोनिज आप रूप मावन में माइये।।६।।
सवैया
आप अनूप सरूप बण्यो, परभावन को तुव चाहत काहे। धरि अमृत मेटन को तिस, भाडली' को लखि ज्यों सठ जाहे ।। तैसो कहा न करो मति भूलि, निधान लखो निज ल्यो किन लाहे । लोक के नाथ या सीख लहो मति, भीख गहो हित जो तुम चाहे ।।७।। तेरो सरूप अनादि आगू गहे, है सदा सासतो सो अब ही है। भूलि धरे भव भूलि रह्यो अब, मूल गहो निज वस्तु वही है।। अजाणि ते और ही जाणि गही सुध, वाणिकी हाणि न होय कही है। भौरि भई सुभई वह भोरि, सरूप अबै सुसंभारि सही है।।८ || तेरी ही चाणि कुवाणि परी अति, ओर ही ते कछु ओर गही है। सदा निज भाव को है न अभाव, सुभाव लखाव करे ही लही है।। बिना पुन्य पापन को भव-भाव, अनूपम आप सु आप मही है। भोरि भई सुभई वह भोरि, अबै सुसरूप संभारि सही है।।६।। तेरी ही वोर को होय धुके किन,काहे को ढूंढत जात मही है।
१ उपयोग में ज्ञानस्वभाव ग्रहण कीजिए, २ तुम, ३ मृगमरीचिका, मिथ्या जल का भ्रम, ४ अज्ञानी. मूर्ख. ५ प्राप्त करने जाता है. ६ लौ, लीनता, ७ क्यों नहीं. ८ लाते हो. ६ अज्ञानता से, १० स्वरूप की. ११ भोली-भाली, १२ स्वरूप. १३ कुटे १४ प्रारम्भ से. ठेठ से. १५ अपना स्वरूप. १६ स्वभाव. 49 झुकता है,
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