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स्वरूपानन्द
दोहा परमदेव परमातमा, अचल अखण्ड अनूप। विमल ज्ञानमय अतुल पद, राजत ज्योतिसरूप ।।१।।
सवैया एक अनादि अनूप वण्यो नहिं, काहू कियो अरु ना विछुरेगो। या जग के पद ये पर हैं सब, ना करे ना कर नाहिं करेगो।। वस्तु सो वस्तु अवस्तु न वस्तु सों,नाही टर्यो अरु नाहिं टरेगो।। आप चिदानन्द के पद को सुधा , यो धरे अरु आगू धरेगो ।।२।। आप अनादि अखण्ड विराजत काहू पै खण्ड कियो नहीं है। जो भव में भटक्यो तो उसास तो, ज्ञानमई पद और न पैहै।। चेतन ते न अचेतन ह्वै कहूं, यों सरधान किये सुख लहैं ।। 'दीप' अनूप सरूप महा लखितेरो सदा जग में जसवै है।।३।। या जग में यह न्याय अनादि को,काहू की वस्तु को कोउ न छीवे । देह मलीन में लीन वै दीन ढे, देखे महादुख आप सदीवे ।। याकी लगनि करे फिर वे दुख, देखि है या भव मांहि अतीवे । याही से आपकी आप गहें निधि, ज्ञानी सदा सुख अमृत पीवे ।।४।। कोरि" अनंत कहो किम तो कहुं, तू पर को मति ना अपनावे । ईश्वर आपहि आप वण्यो तुव" लागि पराश्रय क्यों दुख पावे।। धारि समाना३ सुसीख धरो उरि, श्रीगुरुदेव यों तोहि बतावे ।
१ आगे, भविष्य में, २ किसी के द्वारा. ३ जाएगा. ४ क्लेश पाता, ५ प्राप्त करेगा, ६ होगा, ७ स्पर्श करे, ; सदा ही. ६ अत्यन्त. १० करोड़, ११ तेरे. १२ के लिए, १३ साम्य भाय
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