________________
अरुझि अविद्या मांहि महा रति मानी है । अपने कल्याण को न अंगीकार करे कहुं, तत्त्व सों विमुख जगरीति सांची जानी है। इंद्रजालवत भोग वंचिकेर विलाय जाय, तिन डी की चाहिए को ऐसो मूढ़ प्रानी है। ऐसी परबुद्धि सब छिन ही में छूटत है, आप पद जाने जो तो होय निज ज्ञानी है । ।१८३ || तिहुंलोक चाले जाते ऐसो वज्रपात परे, जगत के प्राणी सब क्रिया तजि देतु हैं । समकिती जीव महा साहस करत यह, ज्ञान में अखंड आप रूप गहि लेतु हैं। सहज सरूप लखि निर्भय अलख होय, अनुभौ विलास भयो समता समेतु' हैं। महिमा अपार जाकी कहि है कहां लों कोय, चेतन चिमतकार ताही में संचेतु है | | १८४ ।। कमलनी पत्र जैसे जल सेती बंध्यो रहे. याकी यह रीति देखि नय व्यवहार में । जल को न छीवे वह जल सो रहत न्यारो, सहज सुभाव जाको निहचे विचार में। तैसे यह आतमा बंध्यो है परफंद' सेती, आपणी ही भूलि आपो मान्यो अरुझार में। पाए परमारथ के पर सों न पग्यो कहुं, आपनो अनंत सुख करे समैसार में || १८५ || पदमनीपत्र सदा पय ही में पग्यो रहे,
१ स्वीकार, २ ठगी कर ३ सहित ४ सावधान, ५ से (द्वारा), ६ राग-द्वेष, मोह, ७ से (द्वारा), ८ अध्यवसान रूप उलझन ६ कमलिनी का पत्ता, १० जल
११२