________________
नानावास नहीं नहीं नरदेस है। अधो मध्य ऊरध विसेख' नहीं पाइयतु, कोउ विकलप केरो नहीं परवेस है। भोजन न वास जहां नहीं वनवास तहां, भोग न उदास जहां भव को न लेस है। स्वसंवेद ज्ञान में अखंड एक भासतु है, देव चिदानन्द सदा जग में महेस है। १८० ।। देवन के भोग कहुं दीसें नहीं नारक में, सुरलोक माहि नहीं नारक की वेदना। अंधकार माहि कहुं पाइये उद्योत नाहिं, परम अणू के मांहि भासतु न वेदना। आतमीक ज्ञान में न पाइये अज्ञान कहुं, वीतराग भाव में सराग की निषेदना'। अनुभौ क्लिास में अनंत सुख पाइयतु, भव के विकार ताकी भई है उछेदना' ।।१८१।। आग तैं पतंग यह जल सेती जलचर, जटा के बढाये सिद्धि है तो बट धरे हैं। मुंडन ते उरणिये नगन रहे तैं पशु, कष्ट को सहे ते तरु कहुं नाहिं तरें हैं | पठन ते शुक बक ध्यान के किए कहुं. सीझे नाहिं सुने यातै भवदुख भरे हैं। अचल अबाधित अनुपम अखंड महा. आतमीक ज्ञान के लखैया सुख करे हैं ||१८२।। तीनसै तियाल" राजू खेलत अनादि आयो,
१ अनेक प्रकार के. २ विशेष, ३ प्रवेश. ४ निषेध, ५ नाश, ६ सूर्य, ७ से. ८ वट वृक्षा, ६ वनवासी तपस्वी, १० तीन सौ तैंतालीस (३४३) राजू ऊँचाई
१११