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'दीपक' उद्योत वस्तु ढूँढ़ लीजे घर में। साधक उच्छेद सिद्धि कोउ न बतावतु हैं. नीके मूं निहारि' काहे परे जूठी हर में। अनादि निधान श्रुतकेवली कहत सो ही, कीजिए प्रमाण मोखवधू होय कर में ||१३६ ।। मोक्षवधू एसे जो तो याक कर मांहि होय, ताहि केवली के वैन सुने हैं अनादि के। जतन अगोचर अपूरव अनादि को है, उद्यम जे किए जे जे भए सब वादि के। ताते कहा सांच को उथापतु है जानतु ही. मोरो होय बैठो वैन मेटि मरजादि के। जो तो जिनवाणी सरधानी है तो मानि-मानि, वीतरागवैन- सुखदेन यह दादि के ।।१४०।। उद्यमके डारे कहूं साध्य-सिद्धि कहीं नाहि, होनहार सार जाको उद्यम ही द्वार है। उद्यम उदार दुखदोष को हरनहार, उद्यम में सिद्धि वह उद्यम ही सार है। उद्यम विना न कहूं भावी भली होनहार, उद्यम को साधि भव्य गए भवपार है। उद्यम के उद्यमी कहाए भवि जीव तातें, उद्यम ही कीजे कियो चाहे जो उद्धार है।।१४१।। आडंबर भार से उद्धार कहूं भयो नाहीं, कही जिनवाणी मांहि आप रुचि तारणी। चक्री भरतेश जाके कारण अनेक पाप, १ मैं भलीभाँति आत्मावलोकन कर, २ फिर झूठा नहीं बनना पड़ता है, सत्य की उपलब्धि हो जाती है। ३ मुद्रित पाठ है-तौ तो. ४ कथन मात्र. ५ उखाड़ना, लोपना, ६ भोला, अज्ञानी. ७ मर्यादा वाला, ८ वीतरागवाणी, ६ साध कर, १० छोड़ कर,
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