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________________ तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात्। नह्यमूर्तस्य नभसो मदिरा मदकारिणी।। अर्थ- मूर्तिक होने के कारण ही आत्मा मदिरा से पागल हो जाता है। किन्तु अमूर्तिक आकाश को मदिरा मदकारिणी नहीं होती है। "अमूर्तस्य भावोऽमूर्तत्त्वं रूपादिरहितत्वम्" अर्थात् अमूर्त के भाव को अर्थात् स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहितपने को अमूर्त कहते हैं। (४) जीव का कर्तृत्व व्यवहार नय से आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मों का और अशुद्ध निश्चयनय से रागादि भाव कर्मों का तथा शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध भावों का कर्ता है। भावार्थ- पुद्गल "पूरयन्ति गलयन्ति इति पुद्गलाः" अर्थात् जिसमें पूरण और गलन (भेद और संघात) द्वारा नई-नई पर्यायों का प्रादुर्भाव होता है उसको पुदगल कहते हैं। विज्ञान की भाषा में इसे इन्टीग्रेशन व डिसइन्टीग्रेशन (Integration and disintegration) (एकीकरण और विभाजन) कहते हैं। भाव कर्म- द्रव्य कर्म के उदय से होने वाले आत्मा के राग-द्वेष, कषाय, अज्ञान आदि परिणाम-विशेष को भावकर्म कहते हैं। नोकर्म- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक एवं तैजस शरीर के रूप में परिणत पुद्गल-स्कन्ध को नोकर्म कहते हैं। द्रव्य कर्म के सामान्य से आठ भेद हैं अथवा एक सौ अड़तालीस या असंख्यात लोक प्रमाण भी उसके भेद होते हैं। इस संदर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैंकम्म पि सगं कुव्वदि जेण सहावेण सम्ममप्पाणं। जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण भावेण ।। जिस प्रकार कर्म स्वकीय स्वभाव द्वारा यथार्थ में अपने आपको करते हैं उसी प्रकार जीवद्रव्य भी स्वकीय अशुद्ध रागादि परिणामों द्वारा अपने आपको करते हैं। निश्चय नय से कर्म के कर्ता कर्म हैं और जीव-भाव के कर्ता जीव हैं। जीव पुदगल द्रव्य में होने वाले कर्मरूप परिणमन का कर्ता है और कर्म, जीवद्रव्य में होने वाले राग-द्वेषादि परिणमन के कर्ता हैं। यह सब औपचारिक कथन है।
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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