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________________ जीव अपने निजभाव को करता हुआ आत्मा निजभाव का ही कर्त्ता है, पुदगल रूप द्रव्यकर्मों का कर्त्ता नहीं है, ऐसा जिनेन्द्र देव का वचन जानना चाहिए | (५) जीव का भोक्तृत्व आत्मा व्यवहार नय से सुख-दुःख रूप पुद्गल कर्मों का भोक्ता है और निश्चय नय से शुद्ध दर्शन - ज्ञान का ही भोक्ता है । भावार्थ- संसारी जीव सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं। बाह्य कारणों के कारण और सातावेदनीय कर्म के उदय से जो प्रसन्नता होती है उसे सुख कहते हैं । "दुःख' - सामान्य भाषा में पीड़ा रूप आत्मा के परिणाम को दुःख कहते हैं या असाता वेदनीय कर्म के उदय से आत्म परिणामों से जो संक्लेश होता है, उसे दुःख कहते हैं । शुद्धदर्शन से अभिप्राय केवलदर्शन से है तथा शुद्ध ज्ञान से केवलज्ञान । चतुर्थ गुणस्थान से सिद्ध अवस्था तक के सभी जीव अपनी-अपनी भूमिका की शुद्धि के अनुसार आत्मिक अर्थात् अतीन्द्रिय सुख को भोगते हैं। कर्त्ता और भोक्ता अधिकार को स्पष्ट करते हुए आचार्य वक्रग्रीवाचार्य कहते हैंकत्ता भोत्ता आदा पोग्गल - कम्मस्स होदि ववहारा । कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो || अर्थात् - आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्त्ता - भोक्ता व्यवहार से है और आत्मा कर्मजनित भावों का कर्त्ता-भोक्ता निश्चय से अर्थात् अशुद्ध निश्चय नय से है। (६) जीव का स्वदेह परिमाण व्यवहार नय से आत्मा संकोच - विस्तार के कारण समुद्घात के बिना अपने-अपने शरीर के बराबर है और निश्चय नय से असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश के बराबर है। भावार्थ- शरीर नाम-कर्म के उदय से जब जीव कर्मों के आवरण से आच्छादित होता है तो वह संकोच को प्राप्त होता है और जब आवरण का अभाव हो जाता है तो वह विस्तार को प्राप्त होता है। संसार अवस्था में हानि-वृद्धि का कारण शरीर नाम-कर्म है। उसके सम्बन्ध से जीव घटता है और बढ़ता है। सबसे सूक्ष्म शरीर वाले लब्ध्य- अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोदिया जीव (के उत्पन्न होने के तीसरे समय ) से १.८६
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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