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जानने-देखने की शक्ति नहीं है, वह अजीव है)। मेरे जैसे अनन्तानन्त जीव इस लोक
जीवो उवओगमओ, अमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो, सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ।।२।। (दव्य संग्रह) वह जीने वाला है, उपयोगभय, अमूर्तिक, कर्ता, अपने शरीर के बराबर परिमाण वाला, भोक्ता, संसारी, सिद्ध और स्वभाव से ऊर्ध्व गति वाला है।
अनादि कर्म-बन्ध के वश अशुद्ध द्रव्यप्राणों और भावप्राणों से जो जीता है, अतः वह जीव है। क्षायोपशमिक ज्ञान और दर्शन से सहित होने से ज्ञानदर्शन रूप उपयोगमय है। शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव वाला होने से अमूर्त है। मन-वचन-काय के व्यापार को उत्पन्न करने वाले कर्म-सहित होने से कर्ता है। अनादि कर्म-बन्ध के आधीन होने से शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न संकोच-विस्तार के कारण स्वदेह परिमाण वाला है। शुभाशुभ कर्मों के कारण उत्पन्न सुख-दुःख को भोगने वाला होने से भोक्ता है। द्रव्य, क्षेत्र. काल, भव और भाव इन पाँच प्रकारों से संसार में रहने के कारण संसार रूप है। अनन्तज्ञानादि और अनन्तगुण रूप स्वभाव वाला होने से सिद्ध है, स्वभाव से ऊपर की ओर गमन करने के कारण ऊर्ध्वगमन करने वाला है। (२) जीव का लक्षण व्यवहार नय से जिसके तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास- ये चार प्राण हैं और निश्चय नय से जिसके चेतना है, वह जीव है। भावार्थ- वस्तु के एक देश को जानने वाले को नय कहते हैं। नय के दो भेद हैंनिश्चय नय और व्यवहार नय। "निश्चय नय"- वस्तु के किसी असली अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञान को निश्चयनय कहते हैं। निश्चय नय से जो शुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला है और शुद्ध चैतन्य प्राण से जीता है. जीवेगा, पहले जी आया है वह जीव है। "व्यवहार नय" - किसी निमित के वश से एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ रूप 'जानने वाले ज्ञान को व्यवहार नय कहते हैं। व्यवहार नय से जिसके तीनों कालों (भूतकाल, वर्तमान काल, भविष्यकाल) में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास- ये प्राण पाये जाते हैं वह जीव है। "इन्द्रिय" - जिससे संसारी जीव की पहचान होती है, उसे इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रिय दो प्रकार की होती हैं- द्रव्य इन्द्रिय और भाव इन्द्रिय।