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अध्याय – २
मैं कौन हूँ?
मङ्गलाचरण केवलणाण तिणेत्तं, चोत्तीसादिसय-भूदि संपण्णं। णाभेय-जिणं तिहुवण-णमंसणिज्जं णमंसामि ||१|| अजिय -जिणं जिय -मयणं, दुरित-हरं आजवंजवातीदं । पणमिय
णिरूवमाणं ||२|| संसारण्णवमहणं, तिहुवण-भव्याण पेम्म-सुह जणणं। संदरिसिय -सयलटुं संभवदेव णमामि तिविहेण ।।३।। भव्य -जण-मोक्ख-जणणं, मुणिंद-देविदं पणद-पय -कमलं। णमिय
अहिणंदणेसं !| अर्थ- केवलज्ञान रूपी तीसरी नेत्र के धारक, चौंतीस अतिशय रूपी विभूति से सम्पन्न
और तीनों लोकों के द्वारा नमस्करणीय, ऐसे नाभेय अर्थात ऋषभ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ।।१।। कामदेव को जीतने वाले, पाप को नष्ट करने वाले, संसार से अतीत और अनुपम अजितनाथ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। ।।२।। संसार-समुद्र का मंथन करने वाले (वीतराग), तीनों लोकों के भव्य जनों को धर्म प्रेम और सुख के दायक (हितोपदेशक) तथा सम्पूर्ण पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को दिखलाने वाले (सर्वज्ञ), सम्भवनाथ भगवान को मैं मन, वचन और काय से नमस्कार करता हूँ।।३।। भव्य जीवों को मोक्ष प्रदान करने वाले तथा मुनीन्द्र (गणधर) एवम् देवेन्द्रों के द्वारा वन्दनीय चरण-कमल वाले अभिनन्दन स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ ।।४ || (१) जीव और द्रव्य छ: द्रव्यों - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों के अन्तर्गत मैं एक द्रव्य हूँ| द्रव्य-जिसमें गुण और पर्याय पाये जाते हैं। उपर्युक्त छःह द्रव्यों में से मैं जीव नामक द्रव्य हूँ। 'उपयोगो लक्षणम्'- उपयोग ही जीव का लक्षण है अर्थात जो जीवित है, जीवेगा और पहले जी आया है, वह जीव है (इसके विपरीत, जिसमें
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