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________________ उपचार तथा नियमित रूप से उपचार करने से अवकाश लेकर कम किया जा सकता है। इस प्राणिक उपचार का वर्णन क्रम (६) में किया गया है। (ग) कभी-कभी रोगी की मनो रोगग्रसित ऊर्जा के उपचारक के 6 के अंदर संक्रमण एवं उनका जमाव हो जाने के कारण, वह (उपचारक) अपने 6 पर एक प्रकार का भारीपन तथा सांस लेने में कठिनाई महसूस कर सकता है। इस दशा के सुधारने के लिए उपचारक को T 6 करना चाहिए। उपचारक अपने कंधों व बांह/बांहों पर सुन्नपन तथा छाती में दर्द महसूस करता है। 7 अधिक सक्रिय, किन्तु खालीपन सहित होता है। उपचारक का उपचार के कार्य में रोगी से एक प्रकार की सहानुभूति सी होती है। यह स्वयमेव ही उपचारक के 7 से हृदय की ऊर्जा निकलने में कारण बन जाती है, जिससे रोगी पर चैन पहुंचाने एवम् ठीक करने वाला (soothing and healing) प्रभाव पड़ता है। इस कारण उपचारक का 7 का अधिक उपयोग होने के कारण उस पर ऊर्जा का खोखलापन हो जाता है। इसका समाधान उपचारक द्वारा नियमित प्राण उपचार और उपचार से अवकाश लेना है। यद्यपि उपचारक 7- H तकनीक द्वारा हृदय की ऊर्जा का रोगी तक प्रेषित कर सकता है, किन्तु इसकी अनुशंसा नहीं की जा सकती क्योंकि इससे उपचारक को छाती का दर्द हो सकता है, जो हृदय रोग के रूप में विकसित हो सकता है। उपचारक को अपने स्वयं के लिए किसी प्रकार का कोई रक्षात्मक कवच नहीं बनाना चाहिए। जब रोगी उपचारक से बात करता है, तो उस (रोगी) में से दबी हुए नकारात्मक भावनायें निकलती हैं जो उपचारक के पास आती हैं। यदि उपचारक के चारों ओर कवच होगा, तो ये नकारात्मक भावनाएं कवच से टकराकर वापस रोगी को और ज्यादा वेग व शक्ति से टकरायेंगी, जिससे रोगी की दशा और ज्यादा खराब हो जायेगी। यह परासामान्य भाषा में धूम-धड़ाका (boomerang) ५.३५६
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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