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________________ और उपचार की प्रभावी गति काफी हद तक उपचारक की कुशलता पर निर्भर करती है, इसलिए इसको कला कह दिया है। यह भी सलाह दी जाती है कि पहले इसका अभ्यास सरल, फिर मध्यम श्रेणी के रोगों पर किया जाये। अनुभव, कुशलता एवम् आत्म विश्वास प्राप्त करते-करते फिर कठिन तथा और ज्यादा कठिन रोगों का उपचार किया जाये। उपचारक को यह भी सलाह दी जाती है कि वे प्राणिक श्वसन-ध्यान करके अधिक भावनात्मक और मानसिक स्थिरता विकसित करें और प्रतिदिन द्विहृदय पर ध्यान-चिन्तन करें, क्योंकि इससे वे रोगी की रोगग्रसित ऊर्जा से बच पायेंगे। यह मनो/वैज्ञानिक उपचारकों में आम बात है कि वे रोगियों के मानसिक/मनो रोगों से पीड़ित हो जाते हैं तथा तदुपरान्त अस्थायी रूप से मानसिक तौर पर असंतुलित हो जाते हैं। (११) मनोरोग उपचारकों को होने वाली स्वास्थ्य समस्यायें ---- Health Problems encountered by Psychotherapists (क) Depression (निराशा/मायूसी) आमतौर पर होती है। यह उपचारक की प्राण ऊर्जा अनजाने में उसके शरीर से रोगी में जाने के कारण होती है क्योंकि रोगी के शरीर की ऊर्जा पर खोखलापन होता है और ऊर्जा के प्रवाह का सिद्धान्त उच्च स्तर से निम्न स्तर की ओर जाने का होता है। यह रोगी की रोगग्रसित ऊर्जा से संक्रमित हो जाने के कारण भी होता है। (ख) जब रोगी अपनी बीमारी का बखान करता है, तो रोगी की दूषित नकारात्मक भावनाओं के लिए उपचारक एक कूड़े की टोकरी (garbage bin) बन जाता है। इस प्रकार के कुछ दूषित पदार्थ शरीर के प्राकृतिक प्रतिरक्षात्मक तंत्र द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं और कुछ शरीर में बने रहते हैं। लम्बे समय में इनके इकट्ठे होते रहने के कारण उपचारक के स्वयं मनोवैज्ञानिक रोगों से पीड़ित होने की प्रवृत्ति होती है तथा वह गलत व्यवहार करने लग जाता है और कभी कुछ हद तक हिंसात्मक भी हो सकता है। इसको उपचार अथवा रोगी को सलाह देने के पश्चात द्विहृदय पर ध्यान चिन्तन, सप्ताह में एक बार स्व-प्राणिक
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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