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मार्गणा
होना, इष्ट से राग और अनिष्ट से द्वेष न करना, स्त्री
पुत्र मित्रादि में स्नेहरहित ११. भव्य - जिन जीवों की अनन्त चतुष्टय रूप सिद्धि होने वाली हो अथवा
जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों, उन्हें भव सिद्ध कहते हैं। जिनमें इन दोनों में से कोई लक्षण घटित न हो उन जीवों को अभव्य सिद्ध कहते हैं। अभव्य जीव जघन्य युक्तानन्त प्रमाण होते हैं। सम्पूर्ण संसारी जीव राशि में से अभव्य जीय राशि घटाने पर भव्य
जीव राशि का प्रमाण निकलता है। १२. राम्यक्त्व - सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव के द्वारा वर्णित छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय, नव
मार्गणा पदार्थ का श्रद्धान करना सम्यक्त्व कहलाता है। यह दो प्रकार का
१३. संज्ञा
मार्गणा
१ आज्ञा सम्यक्त्व- बिना युक्ति के यथा श्रद्धान करना। २ अधिगम सम्यक्त्व- इनके विषय में प्रत्यक्ष परोक्षरूप प्रमाण,
द्रव्यार्थिक आदि नय, नाम, स्थापना आदि निक्षेप इत्यादि के
द्वारा निश्चय करके श्रद्धान होना। - जीव दो प्रकार के होते हैं- एक संज्ञी और दूसरे असंज्ञी! संज्ञा
शब्द से मुख्यतया तीन अर्थ लिये जाते हैं। १– नाम निक्षेप, जो कि व्यवहार के लिये किसी का रख दिया जाता है जैसे ऋषभ, भरत, बाहुबली, महावीर, अर्ककीर्ति आदि। २- आहार, भय, मैथुन और परिग्रह
की
इच्छा ! ३- धारणात्मक या ऊहापोहरूप विचारात्मक ज्ञान विशेष । प्रकृत में यह अन्तिम अर्थ ही विवक्षित है। यह दो प्रकार का हुआ करता है- लब्धिरूप और उपयोग रूप। नोइन्द्रियावरणी कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त विशुद्धि को लब्धि और अपने विषय में प्रवृत्ति को उपयोग कहते हैं। जिनके यह लब्धि या उपयोगरूप मन-ज्ञान विशेष पाया जाय उनको संझी कहते हैं और जिनके यह मन न हो उनको असंज्ञी कहते हैं। इन असंज्ञी जीवों के मानस ज्ञान नहीं होता, यथासम्भव इन्द्रियजन्य ज्ञान ही होता है।
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