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________________ ७. शान मार्गणा - जिसके द्वारा जीव त्रिकाल विषयक समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक पर्यायों को जाने, उसको ज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं, एक प्रत्यक्ष एवम् क्षायिक-केवलज्ञान और दूसरा परोक्ष एवं क्षायोपशमिक- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान। इनमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान सम्यग्ज्ञान भी होते हैं और मिथ्याज्ञान भी होते हैं। ज्ञान के मिथ्या होने का अंतरंग कारण मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय है। मिथ्या अवधि ज्ञान को विभंगज्ञान भी कहते हैं। मनः पर्यय ज्ञान केवल संयमी जीवों को ही हो सकता है (प्रमत्त गुणस्थान से लेकर क्षीण कषाय गुणस्थान पर्यन्त)। - पांच महायतों का धारण करना, पांच समितियों का पालना, कषायों का निग्रह करना. मन वचन काय रूप दण्ड का त्याग तथा पांच इन्द्रियों के जय को संयम कहते हैं। बादर संज्वलन कषाय के उदय से अथवा सूक्ष्म लोभ के उदय से और मोहनीय कर्म के उपशम से अथवा क्षय से नियम से संयम रूप भाव उत्पन्न होते संयम मार्गणा - ६. दर्शन मार्गणा संयम दो प्रकार का है- प्राणि संयम और इन्द्रिय संयम। - पदार्थों में सामान्य विशेष दोनों ही धर्म रहते हैं; किन्तु इनके केवल स्वरूप मात्र की अपेक्षा से जो स्व-परसत्ता का अभेदरूप निर्विकल्प अवभासन होता है, उसको दर्शन कहते हैं अतएव वह निराकार है और इसीलिये शब्दों द्वारा प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। इसके चार भेद हैं:चक्षुदर्शन - चक्षुरिन्द्रिय द्वारा पदार्थ का देखना अथवा ग्रहण करना अचक्षु - अन्य चार इन्द्रिय अथवा मन के द्वारा पदार्थ का दर्शन सामान्य रूप ग्रहण अवधि अवधि के विषयभूत परमाणु से लेकर महास्कन्ध दर्शन पर्यन्त मूर्त द्रव्य का सामान्यरूप से प्रत्यक्ष १.५७
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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