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६. कषाय
मार्गणा
अपने को तथा दूसरों को दोषों से आच्छादित नहीं भी
करती हैं। नपुंसक - जो न स्त्री हो और न पुरुष हो, ऐसे दोनों ही लिंगों
को रहित जीम को नपुंश्या कहते हैं। इसके भट्टा में
पकती ईंट के अग्नि के समान तीव्र कषाय होती है। - जीव के सुख दुःख आदि रूप अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है ऐसे कर्मरूपी क्षेत्र (खेत) का यह कर्षण करता है, इसलिये इसको कषाय कहते हैं। बंधने वाले कर्मों में अनुभाग बंध और स्थिति बंध इसका कार्य है। सम्यक्त्व, देश चारित्र, सकल चारित्र, यथाख्यात चारित्ररूपी परिणामों को जो कषे-घाते, न होने दे, उसको कषाय कहते हैं। क्रमशः इसके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन भेद होते हैं। इसके क्रोध, मान, माया, लोभ भी भेद होते हैं। इन दोनों प्रकारों का परस्पर गुणा करने से कषाय के १६ भेद हो जाते हैं।
यद्यपि यहां कषाय शब्द का ही उल्लेख है, तथापि यहां नोकषाय का भी ग्रहण कर लेना चाहिए अर्थात हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, पुंवेद, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद। गुणस्थान की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर ऊपर के सभी जीव अकषाय होते हैं।
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