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४. योग
मार्गणा
५. वेद मार्गणा
भेद हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस । पुद्गल विपाकी शरीर नाम कर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है, उसको योग कहते हैं। उसके दो भेद हैं- भाव योग और द्रव्य योग | पुद्गल विपाकी आंगोपांग नाम कर्म और शरीर नाम कर्म के उदय से, मन वचन काय पर्याप्ति जिसकी पूर्ण हो चुकी है और जो मनोवाक्काय वर्गणा का अवलम्बन रखता है ऐसे संसारी जीव की जो समस्त प्रदेशों में रहने वाली कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको भाव योग कहते हैं और इस ही प्रकार के जीव के प्रदेशों का जो परिस्पन्दन होता है उसको द्रव्य योग कहते हैं । यहां पर कर्म शब्द उपलक्षण है, इसलिये कर्म और नोकर्म दोनों को ग्रहण करने वाला योग होता है, ऐसा समझना चाहिए ।
- वेद नामक नोकषाय के उदय से जीवों के भाव वेद होता है और निर्माण नाम कर्म सहित आंगोपांग नामकर्म के उदय से द्रव्य वेद होता है। यह दोनों वेद प्रायः करके समान ही होते हैं, अर्थात जो द्रव्य वेद वही भाव वेद और जो भाव वेद वही द्रव्य वेद । परन्तु कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यग्गति में कहीं-कहीं विषमता देखी जाती है। इसके तीन भेद होते हैं:
पुरुष
स्त्री
उत्कृष्ट गुण अथवा उत्कृष्ट भोगों का जो स्वामी हैं, अथवा लोक में उत्कृष्ट गुणयुक्त कर्म को करे, यद्वा जो स्वयं उत्तम हो उसको पुरुष कहते हैं ।
जो मिथ्यादर्शन अज्ञान असंयम आदि दोषों से अपने को आच्छादित करे और मृदु भाषण, तिरछी चितवन आदि व्यापार से जो दूसरे पुरुषों को भी हिंसा, अब्रह्म आदि दोषों से आच्छादित करे, उसको आच्छादनस्वभावयुक्त होने से स्त्री कहते हैं। यह लक्षण बहुलता की अपेक्षा से है, क्योंकि तीर्थंकरों की माता या सम्यक्त्वादि गुणों से भूषित दूसरी बहुत सी स्त्रियाँ
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