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विशेष – ४. मिनट का एक मुहुर्त होता है। आवली के ऊपर और मुहुर्त के भीतर प्रत्येक समय अर्थात कालखण्ड को अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। एकेन्द्रिय के चार पर्याप्तियाँ (आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास), विकलत्रिय और असैनी पञ्चेन्द्रिय के पाँच (भाषा अतिरिक्त) तथा सैनी पञ्चेन्द्रिय के छह (मन; अतिरिक्त) पर्याप्तियाँ होती हैं। (ञ) मार्गणा
प्रवचन में जिस प्रकार से देखे हों उसी प्रकार से जीवादि पदार्थों का जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में विचार-अन्वेषण किया जाये उनको ही मार्गणा कहते हैं। तात्पर्य यह है कि यह जीव के उन असाधारण कारणरूप परिणामों का बोध कराता है जोकि गुणस्थानों की सिद्धि में साधन हैं अथवा अपनी जीव की उन अधिकरणरूप पर्यायों- अवस्थाओं को बताता है जिनमें कि विवक्षित गुणस्थानों की सिद्धि शक्य एवं प्राप्ति संभव है। यद्यपि ये परिणाम और पर्याय अशुद्ध जीव के होते हैं फिर भी उसकी शुद्धि में साधन और आधार हैं अतएव अन्वेष्य है। मार्गणा चौदह प्रकार की होती है। १. गति -- गति नाम कर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय को अथवा मार्गणा चारों गतियों में गमन करने के कारण को कहते हैं। इसके चार
भेद- नरक गति, तिर्यग्गति, मनुष्य गति और देवगति । २. इन्द्रिय - इन्द्र के समान जो हो उसको इन्द्रिय कहते हैं। जिस प्रकार मार्गणा नवग्रैवेयकादिवासी किसी की आज्ञा के वशवर्ती नहीं हैं, अतएव
स्वतन्त्र हैं। उसी प्रकार स्पर्शन आदि इन्द्रियां भी अपने-अपने विषयों में दूसरे विषय की अपेक्षा न रखकर स्वतंत्र हैं। इनके भावेन्द्रिय (मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले विशुद्धि अथवा उस विशुद्धि से उत्पन्न होने वाले उपयोगात्मक ज्ञान) और द्रव्येन्द्रिय (शरीर नाम कर्म के उदय से बनने वाले शरीर के चिन्ह विशेष), ये दो भेद होते हैं। इन्द्रिय के पांच भेद एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय हैं जो स्पर्श, रस,
गंध, रूप, शब्द से सम्बन्धित हैं। ३. काय - जाति नाम कर्म के अविनाभावी बस और स्थावर नाम कर्म के
मार्गणा उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय को कहते हैं। उसके छह
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