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________________ : ये संज्ञायें प्रमत्त गुणस्थान तक होती हैं । अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में आहार संज्ञा नहीं होती। इन गुणस्थान में शेष संज्ञायें उपचार से ही होती हैं, क्योंकि उनके कारणभूत कर्मों का वहां उदय पाया जाता है । परन्तु भागना, रतिक्रीड़ा, परिग्रह के स्वीकार आदि में प्रवृत्ति रूप उनका कार्य वहां नहीं हुआ करता, क्योंकि वहां ध्यान अवस्था ही है। (झ) चौदह जीव समास संसार के भीतर रहने वाले अनन्त जीव जातियों के संग्रह करने की उस पद्धति को जीव- समास कहते हैं, जिसमें कोई जीव जाति छूट न जावे । आगम में जीवसमास के अनेक भेद हैं। बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय ये सात, इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक दो भेदों से गुणा करने पर चौदह प्रकार से जीव समास होते हैं। "बादर जीव' - बादर नाम कर्म के उदय से जिसका शरीर दूसरों से रुकता है और दूसरों को रोकता है, इन्हें बादर जीव कहते हैं। "सूक्ष्म जीव" सूक्ष्म नाम कर्म के उदय से जिनका शरीर न तो दूसरों से रुकता है और न दूसरों को रोकता है, उन्हें सूक्ष्म जीव कहते हैं I "पर्याप्तक" - जिन जीवों की आहारदिक पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाएं, उन्हें पर्याप्तक जीव कहते है । "अपर्याप्तक" जिन जीवों के आहारदि पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती है, उन्हें अपर्याप्तक कहते हैं- इनके दो भेद होते हैं। एक तो वे जिनकी शक्तियाँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं, किन्तु अन्तर्मुहूर्त के भीतर नियम से पूर्ण हो जाने वाली हैं, ऐसे जीव निर्वृत्यपर्याप्तक कहलाते हैं। दूसरे वे जिनकी शक्तियाँ न तो पूर्ण हुई हैं और न आगे पूर्ण होंगी, ऐसे जीव लब्ध्यपर्याप्तक कहलाते हैं। वास्तव में लध्यपर्याप्तक (लब्धि - अपर्याप्तक) जीव ही अपर्याप्तक कहलाते हैं, क्योंकि उन्हीं के अपर्याप्तक नाम कर्म का उदय रहता है। निर्वृत्यपर्याप्तक तो मात्र निवृत्त ( रचना) की अपेक्षा अपर्याप्तक है । जीव अपर्याप्त अवस्था में अन्तर्मुहूर्त तक ही रहते हैं । " पर्याप्ति- आहारवर्गणा, भाषावर्गणा और मनोवर्गणा के परमाणुओं को शरीर तथा इन्द्रियादि रूप परिणमावने की जीव की शक्ति की पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं। पर्याप्तिक के छह भेद शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनः पर्याप्ति होते हैं। इन सब पर्याप्तियों के पूर्ण होने का काल अन्तर्मुहूर्त हैं और एक-एक पर्याप्ति का काल भी अन्तर्मुहूर्त है । आहार, १.५३ —
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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