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(घ) ऊर्जित पानी (इसका वर्णन इस भाग के अध्याय ३६ में दिया गया है)
या धूप में रखा हुआ पानी पिएं। जमीन से तथा पेड़ से विशेषकर चीड़ या बरगद के पेड़ से प्राणशक्ति प्राप्त करें, जिसकी विधि अध्याय ५ के क्रम संख्या ३ व ५ में दी गयी है। यदि हो सके तो पेड़ से लिपट जायें। इसके बहुत लाभदायक परिणाम होते हैं। पेड़ों के बदलते रहने की सलाह दी जाती है क्योंकि रोगी से बहुत अधिक रोगग्रस्त ऊर्जा सोख लेने के कारण पेड़ बीमार हो सकते हैं या लंबे समय के बाद मर
भी सकते हैं। (ङ) अपने को न थकाने वाली फलदायक गतिविधियों में व्यस्त रखें। अपने
रोग या होने वाली भविष्य की बातों में ध्यान न लगायें। इससे रोगग्रस्त
ऊर्जा को शरीर से बाहर जाने में मदद मिलती है। (च) सभी प्रकार की नकारात्मक भावनाओं और विचारों से बचें या कम करें।
इस संबंध में अध्याय १ के क्रम संख्या (ख) (१७) का अवलोकन करें। (छ) ईश्वर से भक्तिपूर्वक प्रार्थना करें। (ज) दवा भी लेते रहें। जीव द्रव्य और भौतिक शरीर दोनों का एक साथ
उपचार करने से उपचार तेजी से होता है। जैसा कि अध्याय ४ के क्रम संख्या ११ में वर्णित है, उपचार की सम्पूर्ण या समग्र दृष्टि होनी
चाहिए। (झ) गंभीर रोगों के लिए अच्छे कुशल प्राणशक्ति उपचारक तथा मैडिकल
डॉक्टर से मिलना चाहिए। अच्छा भोजन, समुचित स्वच्छ पानी पीना, ठीक ढंग से सांस लेना, समुचित शारीरिक कसरत करना, अच्छी जीवनचर्या अपनाना और मन को शांत व निर्णायक रखना- ये सब ऐसी चीजें है जो व्यक्ति की शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक स्थिति को हमेशा ठीक बनाये रखने में बहुत ही सहायता करते हैं।
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