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इन्द्रिय पर्याप्ति- उसी नोकर्मवर्गणा के स्कन्धों में से कुछ वर्गणाओं को अपनी-अपनी इन्द्रिय के स्थान पर उस द्रव्येन्द्रिय के आकार परिणमाने की आवरण- ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम तथा जाति नाम कर्म के उदय से युक्त जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को
कहते हैं। ४. श्वासोच्छवास पर्याप्ति- इसी प्रकार कुछ स्कन्धों की श्वासोच्छवासरूप परिणमाने की शक्ति के पूर्ण हो जाने को कहते हैं।
उपरोक्त चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीव की होती है। इन जीवों की अन्य पर्याप्ति नहीं होती है। भाषा पर्याप्ति- वचनरूप होने के योग्य पुद्गल स्कन्धों (भाषा वर्गणा) को वचनरूप परिणमाने की स्वरनाम कर्म के उदय से युक्त जीव की शक्ति के पूर्ण होने को कहते हैं।
ये पांच पर्याप्तियां द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी (मनरहित) पंचेन्द्रिय तक के जीवों की होती हैं। ___ मनः पर्याप्ति - द्रव्यमन रूप होने के योग्य पुद्गल स्कन्धों को
(मनोवर्गणाओं को) द्रव्यमन के आकर परिणमाने की नोइन्द्रियावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से युक्त जीव की शक्ति के पूर्ण होने को
कहते हैं। यह छहों पर्याप्तियां संज्ञी जीवों के हुआ करती हैं।
समस्त पर्याप्तियों का आरम्भ तो युगपत होता है, किन्तु उनकी पूर्णता क्रम से होती है। इनका काल यद्यपि पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर कुछ-कुछ अधिक है, तथापि सामान्य की अपेक्षा सबका अन्तर्मुहूर्तमात्र ही काल है। आहार पर्याप्ति की पूर्णता होने के संख्यात भाग अधिक काल में शरीर पर्याप्ति पूर्ण होती है। इसके आगे की पर्याप्ति के पूर्ण होने में पूर्व की अपेक्षा कुछ अधिक काल लगता है, तथापि वह अन्तर्मुहूर्त ही है। इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन इन पर्याप्तियों के पूर्ण नहीं होने पर भी यदि शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो गई है तो वह जीव पर्याप्त ही है, किन्तु उससे पूर्व निर्वृत्यपर्याप्तक कहा जाता है।
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