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असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है । उत्कृष्ट अवगाहना स्वयम्भूरमण समुद्र के मध्य में होने वाले महामत्स्य की १००० योजन लम्बा, ५०० योजन चौड़ा, २५० योजन मोटा होती है । इन्द्रियों के दृष्टिकोण से उत्कृष्ट अवगाहना निम्नवत है:
१.
एकेन्द्रिय
द्वीन्द्रिय
त्रीन्द्रिय
२.
चतुरिन्द्रिय
पंचेन्द्रिय
कमल
- शंख
चींटी
भ्रमर
-महामत्स्य
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-
-
—
—
कुछ अधिक १००० योजन
बारह योजन
द्वीन्द्रिय में जघन्य अवगाहना अनुंधरी के पाई जाती है जो घनांगुल का संख्यातवां भाग मात्र है, इससे संख्यात गुणी त्रीन्द्रियों में कुंथु के पाई जाती है, इससे संख्यात गुणी चतुरिन्द्रियों में काणमक्षिका की और इससे भी संख्यात गुणी पंचेन्द्रियों में सिक्थक मत्स्य के पाई जाती है।
(घ) पर्याप्ति
पर्याप्त नाम कर्म के उदय से पर्याप्त (पूर्ण) और अपर्याप्त नाम कर्म के उदय से अपूर्ण पर्याय को अपर्याप्त कहते हैं। अपर्याप्त जीव के दो भेद हैं- एक निर्वृत्य पर्याप्त है जिनकी पर्याप्ति अन्तर्मुहुर्त में नियम से पूर्ण हो जायेगी और दूसरा लब्ध्य पर्याप्त है। जिनकी पर्याप्ति न तो अभी तक पूर्ण हुई है और न होगी तथा पर्याप्त पूर्ण होने के काल से पहले ही जिनका मरण हो जायेगा अर्थात अपनी आयु काल में जिनकी पर्याप्ति कभी भी पूर्ण न हो ।
पर्याप्ति निम्न प्रकार की होती है :
आहार पर्याप्ति - एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर के लिये कारणभूत जिन नोकर्मवर्गणाओं को जीव ग्रहण करता है उनको खलरसभाग रूप परिणमाने की पर्याप्त नाम कर्म के उदय से युक्त जीव की शक्ति को पूर्ण हो जाने को कहते हैं ।
३ कोश
१ योजन
१००० योजन
शरीर पर्याप्ति- उपरोक्त में से खलभाग को हड्डी आदि कठोर अवयव तथा रसभाग को खून आदि द्रव (नरम - पतले ) अवयवरूप परिणमाने की शक्ति के पूर्ण होने को कहते हैं।
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