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________________ (ग) प्रक्षेपित प्राणशक्ति ऊर्जा को प्रभावित बक्र और फिर प्रभावित अंग की ओर जाने का निर्देश दें। अब श्वसन प्रक्रिया के बदले, हाथ चक्र पर और प्राण शक्ति ऊर्जा को प्रभावित अंग पर भेजने की ओर ध्यान देना चाहिए। जब आप अपने सहज ज्ञान से यह समझ लें कि रोगी में समुचित मात्रा में प्राणशक्ति पहुंच गई हैं तब रोगी को ऊर्जित करना बंद कर दें। रोगी में समुचित मात्रा पहुंच गई है या नहीं, इसके लिए उसकी दुबारा जांच करें। प्रारम्भिक प्राणशक्ति उपचार में आपको अध्याय ४ के क्रम संख्या ५ (प्राणशक्ति उपचारक के लिए निर्देश) (ज) में यह निर्देश दिया गया था कि यदि आपको ऊर्जा के बहाव में हल्का सा विकर्षण या ठहराव सा मालूम हो, तब ऊर्जित करना बंद कर दें। जैसे-जैसे आप उपचार में उन्नति करने लगें, इस निर्देश की कोई मान्यता नहीं रह जाती क्योंकि आपकी प्राणशक्ति का स्तर रोगी की तुलना में कहीं अधिक ज्यादा होता है। अपनी प्राणशक्ति ऊर्जा के स्तर को रोगी के प्रभावित अंग से समानता करेंगे तो इसके परिणामस्वरूप उस प्रभावित अंग में प्राणशक्ति का घनापन हो सकता है। यदि रोगी को तीव्र संक्रमण रोग, जलने या कटने से घाव हो तो इलाज प्रत्येक आधे या एक घंटे बाद दोहराना चाहिए। इस प्रकार के केसों में प्राणशक्ति ऊर्जा की बहुत अधिक खपत होती है, इसलिए इलाज को एक निश्चित समय के बाद दोहराते रहना चाहिए। (च) ऊर्जन के साथ-साथ प्राणशक्ति श्वसन प्रक्रिया भी करना चाहिए। ऐसा करने से उपचारक में हो सकने वाली सामान्य प्राणशक्ति की कमी को रोका जा सकता है। (छ) दुगने रूप से ऊर्जित करना(१) समानान्तर रूप से-- इसमें रोगग्रस्त अंग के दौनों ओर अपने दौनों हाथों को रखें, जिससे हाथ के दौनों चक्रों के माध्यम से रोगी के रोगग्रस्त अंग को ऊर्जा मिलती है। इस विधि में बहुत ही तेज ऊर्जा क्षेत्र तैयार होता है जिससे हाथ एक लय में ५.९८ ---- - -
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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