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________________ (च) उपचारक को क्रम संख्या (५) में दिये गये निदेशों का उसके द्वारा समुचित से न पालन करने के कारण (छ) यदि उपचारक अपने स्वयं के घनिष्ठ और सम्बन्धित कुटुम्बी जन (जैसे स्त्री, माता, पिता, सन्तानादि) अथवा मित्र के उपचार के दौरान/उपचार समाप्त करने के बाद अपने को भावनात्मक तौर पर अलग न कर पा रहा हो अथवा उनके कुशलता की चिन्ता लगातार उसके ध्यान में रहे, तो उपचार के पश्चात दोनों के मध्य वायवी डोर को काटने के पश्चात. वह तुरन्त जुड़ जाती है। ऐसी परिस्थति में रोगी को सलाह देनी चाहिए कि वह ऐसी अन्य प्राणशक्ति उपचारक अथवा डॉक्टर से अपना इला: करबाये। (१८) जीव द्रव्य के कम्पन की दर यह प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होती है। यदि उपचारक की कम्पन की दर रोगी से अधिक होती है, तो रोगी हल्का और अच्छा महसूस करेगा। यदि इससे विपरीत हुआ, तो वह कुछ भारीपन और कठिनाई महसूस करेगा। ऐसे में उपचारक को चाहिए कि वह उस दिन इलाज न करे और आराम करने के पश्चात तथा विहृदय पर ध्यान-चिंतन करके किसी अन्य समय रोगी का उपचार करें। यदि रोगी का जीव द्रव्य शरीर उपचारक के तुलना में बहुत उत्तम होता है, तो उपचारक को उसका इलाज नहीं करना चाहिए. अन्यथा विपरीत परिणाम हो सकते हैं। ऐसी दशा में किसी ऐसे उपचारक से जिसका जीव द्रव्य शरीर रोगी से ज्यादा उत्तम हो. से इलाज करवाना चाहिए। (१६) प्राणशक्ति उपचार का उपचारक पर प्रभाव ___ जब उपचारक लगातार प्राणशक्ति उपचार का अभ्यास करता है तो उसका जीव द्रव्य शरीर धीरे-धीरे साफ होता है और उत्तम किस्म का बनता है। उसका आंतरिक आभा मण्डल और अधिक घना हो जाता है। वह एक शक्तिशाली उपचारक बन जाता है। उसके स्वास्थ्य पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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