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(ङ) रोगी बहुत ही बूढ़ा और बहुत ही कमजोर या बीमार है। कुछ अनजान
कारणों से बूढ़े रोगी प्रक्षेपित प्राणशक्ति की अधिक मात्रा अपने शरीर में रोककर नहीं रख पाते। इसका यह अर्थ नहीं कि बहुत बूढ़े बीमार रोगियों का इलाज नहीं करना चाहिए बल्कि इनकी समुचित देख रेख
और सहानुभूतिपूर्वक इलाज करना चाहिए। (च) सम्पूर्ण उपचार का सही समय अभी तक नहीं आया है। रोगी शायद
अभी तक यह नहीं सीख पाया है जो उसे सीखना चाहिए। (छ) नकारात्मक कर्म जिनका वर्णन अध्याय १ के क्रम संख्या (ख) (१७) पर
दिया है। (१७) व्यक्तिगत स्वास्थ्य समस्यायें जो उपचारक की हो सकती है। (क) कुछ उपचारक अपने उंगलियों के जोड़ों, हाथों और भुजाओं में दर्द
महसूस कर सकते हैं। यह रोगी से प्राप्त होने वाले रोगग्रस्त जीव पदार्थ के कारण होता है। इसे GS और C द्वारा दूर किया जा सकता है तथा नमक के पानी से हाथों और भुजाओं को धोना चाहिए एवम् कीटनाशक साबुन से भी धोना चाहिए। इसके लिए स्व-उपचार जिसका वर्णन अध्याय १० में दिया है, किया जा सकता है। नकारात्मक भावनाओं एवं थके होने की अवस्था में उपचार करने के कारण। उपचार तेज गति से करने के कारण . उपचारक का अवचेतन अवस्था में भी रोगी को ऊर्जित करते रहने के कारण। उपचारक के आसपास बहुत से रोगी बैठे रहने के कारण, वे व्यक्ति उपचारक से अवचेतन अवस्था में प्राणशक्ति ग्रहण करते रहते हैं। इस समस्या से बचने के लिए उपचारक को रोगियों को एक खास दूरी पर अथवा अलग कमरे में बिठाना चाहिए ।