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काय क्लेश आदि सहित, तीव्र क्रोध से युक्त आजीवक भवनवासी देवों से लेकर साधु
अच्युत स्वर्ग पर्यन्त असंयत सम्यग्दृष्टि और देशसंयमी मनुष्य और तिर्यन्च | अच्युत कल्प पर्यन्त द्रव्य से निग्रन्थ, किन्तु भाव से मिथ्यादृष्टि
अन्तिम ग्रैवेयक पर्यन्त जो मनुष्य कंदर्प-काम, रागादि परिणामों से सहित पुण्य. ईशान स्वर्ग पर्यन्त कंदर्प | संचय करते हैं
जाति के देव जो मनुष्य गीत, गान आदि को आजीविका-नृत्य आदि | लान्तव कल्प तक करते हैं, किल्विषिक परिणाम सहित होते हैं और शुभ कर्म | किल्विषिक जाति के देव का संचय करते हैं जो मनुष्य पापक्रिया में- पूज्यों के अपमान आदि में अच्युत कल्प पर्यन्त प्रवृत्त होते हैं और आभियोग्य भावना से सहित होते हैं | आभियोग्य जाति के देव
गन्धोदक कहां और क्यों । १. ललाट - हे जिनेन्द्र देव! मेरा सिर सदैव आपके चरणों में झुका रहे।
२. पलक - आपकी परम वीतरागी शान्त मुद्रा मेरी आँखों में सदा के लिये बस जाये। ३. कण्ट - मैं सदैव आपका भक्तिपूर्वक गुणगान करता रहूँ। ४. कान - मैं सदा आपकी दिव्य वाणी सुनता रहूँ। ५. हृदय - आप मेरे मन-मन्दिर में सदा विराजित रहें। ६. सिर - आपका यह पवित्र गन्धोदक मेरे समस्त कर्मों, नोकर्मों, कषायों को नष्ट कर दे
और इसके प्रताप से मुझे आपकी जिन सम्पत्ति मिल जाए, अर्थात् मुझे केवलज्ञान प्राप्त हो जाये।