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________________ शतार-सहस्त्रार जगच्छ्रेणी - जगच्छ्रेणी का चतुर्थ वर्गमूल = J =1116 आनत-प्राणत | प्रत्येक कल्प में पल्य का असंख्यातवां भाग, किन्तु उत्तरोत्तर | आरण-अच्युत | आरणादिक में संख्यातगुणा हीन है। देवों की संख्या से देवियाँ संख्यातगुणी हैं। मुक्तिगामी जीव सौधर्म इन्द्र तथा इन्द्र की शची देवी, सौधर्म इन्द्र के चारों लोकपाल (सोम, यम, वरुण, कुबेर), सानत्कुमार आदि दक्षिण इन्द्र, सभी लौकान्तिक देव और सर्वार्थसिद्धि (अनुत्तर विमान) के देव नियम से एक भवावतारी होते हैं। स्वर्गों में उत्पन्न होने वाले जीव किस प्रकार के जीव कहां की आयु बांधते हैं । जो कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन, जीवनपर्यन्त | इन्द्र अथवा पाँच अनुत्तरों | त्याग और नियम से युक्त हों, मन, वचन, काय को वश | की में करने वाले, निर्ममत्व परिणाम वाले तथा आरम्भ से रहित होते हैं, वे साधु जो ईर्ष्या, मात्सर्य भाव, भय और लोभ के वशीभूत होकर | महा ऋद्धिधारक देव वर्तन नहीं करते हैं तथा विविध गुण और श्रेष्ठ शील से संयुक्त होते हैं, वे श्रमण जो सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् तप से युक्त, मार्दव और | कोई कोई महाऋद्धिधारक विनय आदि गुणों से सम्पन्न, मद और शल्यों रहित साधु देव समता भाव धारण करने वाले श्रमण/शरीर से निरपेक्ष, महाऋद्धिधारक देव अत्यन्त वैराग्यभावों से युक्त और रागादि दोषों से रहित श्रमण/मूल और उत्तर गुणों, पञ्च समितियों, पञ्च महाव्रतों, धर्म एवं शुक्ल ध्यान तथा योग की साधना में सदैव प्रमाद रहित वर्तन करने वाले श्रमण १.३७
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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