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________________ - .-1 - (४) द्वि-हृदय पर ध्यान-चिन्तन, जिसका वर्णन आगे अध्याय ३ में दिया है, प्रतिदिन करना चाहिए। यदि वह जैन शास्त्रों में वर्णित पिण्डस्थ ध्यान आदि करता है, तो शायद इसकी आवश्यकता न पड़े। (५) निरन्तर धर्म भावना एवम् पंच परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए। (१७) नकारात्मक कर्म- कुछ गम्भीर बीमारियां पिछले जन्म/जन्मों और वर्तमान जीवन में होने वाले नकारात्मक कर्मों, विचारों और भावनाओं के कारण होती हैं। प्राण-शक्ति उपचार प्राकृतिक नियमों के अन्तर्गत ही कार्यकारी हैं। इसलिए व्यक्ति के कर्मों के क्षयोपशम या उपशम होने पर जैसे चिकित्सा निमित्त का कारण बनकर आरोग्य करती है, उसी प्रकार प्राण-शक्ति उपचार की कार्यशैली है। हाँ, यदि रोग पिछले कर्मों के कारण हैं तो हम आप यह जानने की स्थिति में नहीं होते कि नकारात्मक कर्म पूरे तरह दूर हुए हैं या नहीं, इसीलिए रोगी का इलाज तो अवश्य होना चाहिये। यदि बीमारी किन्हीं नकारात्मक कर्मों से है तो उसे दूर नहीं किया जा सकता, चाहे आप रोगी का कितना ही इलाज करें और उसे रोग से छुटकारा नहीं मिल सकता। उपचारक रोगी के नकारात्मक कर्मों के फल पर किसी भी प्रकार से रुकावट नहीं डाल सकता, क्योंकि यह प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध होगा। नकारात्मक कमों को सकारात्मक कार्यों द्वारा कुछ सीमा तक निष्क्रिय किया जा सकता है, उसके लिए रोगी को(क) अपने चारित्र को दृढ़ करते हुए, धार्मिक कार्यों में प्रवृत्त होना चाहिए। (ख) ऊपर वर्णित (१६) का पालन करना चाहिए। (ग) क्षमा के नियम का प्रयोग करें। इसके लिए - (१) उन सभी की सूची बनायें जो आपके शत्रु हैं और जिन्होंने आपको कष्ट दिया है। मन में यह सोचें कि आप उन सभी को क्षमा कर रहे हैं। (३) मन ही मन उनको सुखी रहने, अच्छे स्वास्थ्य व समृद्धि का आशीर्वाद दें। (४) मन में ही ईश्वर से दया व क्षमा करने की प्रार्थना करें। ५.१०
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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