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(१४) उपचारक द्वारा रोगी को प्रेषण की हुई प्राण-शक्ति ऊर्जा रोगी के ऊर्जा शरीर
अथवा ऊर्जा चक्र में सोखने के लिए सामान्यत: १२ घटे तक का समय लग सकता है और गंभीर रोगों में २४ घंटे तक समय लग सकता है। इसलिए इतने समय तक रोगी को नहीं नहाना चाहिए, अन्यथा प्रेषित प्राण-ऊर्जा एवं
उपचार का प्रभाव कम या नष्ट हो सकता है। (१५) चमड़ा, रेशमी, हिंसा द्वारा निर्मित पदार्थ एवम् रबड़ प्राण ऊर्जा के कुचालक
होते हैं। अतएव उपचार करते समय इनके निर्मित कपड़े अथवा इनके निर्मित
पदार्थ (बटुआ, बैल्ट, जूते आदि) रोगी के पास से हटा देना चाहिए। (१६) उपचारक की प्राण ऊर्जा के परिष्करण-स्तर (degree of refinement) एवम्
गुणवत्ता का उपचार से सीधा सम्बन्ध है। यदि वह स्थूल अथवा उच्च गुणवत्ता की नहीं है, तो वह रोगी के शरीर में देर से घुसती है। इसके कारण प्राण ऊर्जा की अल्प मात्रा होने पर भी, रोगी के शरीर पर घनापन (congestion) हो सकता है जिसके कारण मौलिक प्रतिक्रिया (radical reaction) हो सकती है। यदि प्राण ऊर्जा सूक्ष्म है याने अधिक गुणवत्ता की है, तो वह रोगी के शरीर में आसानी से और भीतर गहराई तक घुसती (penetrate) है। यह ऊर्जा काफी अधिक मात्रा में बगैर रोगी के मौलिक प्रतिक्रिया के हुए प्रेषित की जा सकती है और इससे उपचार शीघ्र होता है। इन दोनों के ऊर्जा के उदाहरण गाढ़े तेल एवम् पतले तेल से दिए जा सकते हैं, जैसे गाढ़ा तेल शरीर में आसानी से नहीं घुसता, पतला तेल शीघ्र ही और अधिक मात्रा में घुस जाता है।
किसी व्यक्ति के प्राण-ऊर्जा की गुणवत्ता मुख्यतः उसके चरित्र एवम् अध्यात्म स्तर पर निर्भर करती हैं इसके लिए उसको(१) पूर्णतः शाकाहारी होना चाहिए। (२) मिथ्यात्व, हिंसादि पापों, सप्त व्यसनों, धूम्रपान, नशीले पदार्थों, कषायों
जिनका विस्तृत वर्णन भाग १ में दिया है, से बचना चाहिए । (३) प्राणशक्ति उपचार निरन्तर करते रहना चाहिए, ताकि अभ्यास बना रहे
एवम् अनभव व दक्षता बढ़ती रहे।
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