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कुटुम्बी अथवा मित्र ही क्यों न हो। इस भावनात्मक सम्बन्ध के कारण उक्त वर्णित दोनों के मध्य प्राणशक्ति की कड़ी बनी रहती है। इसके कारण रोगी का उपचार तेजी से होने के बदले धीरे-धीरे होता है, क्योंकि इस कड़ी के कारण रोगी को प्रेषित ऊर्जा में वापस उपचारक के पास लौट आने के गुण होते हैं। साथ ही इलाज के तुरंत बाद ही उपचारक रोगी के बारे में कुछ न सोचे क्योंकि ऐसा करने से वायवीय सम्बन्ध फिर से जुड़ सकते हैं। बेहतर होगा कि वह रोगी के पास से हट जाये या रोगी को अपने पास से हटा दे।
(१३) रोग ग्रस्त प्राण ऊर्जा जो उपचारक रोगी के शरीर से निकालता है, वातावरण में ही रहती है तथा हवा के हलन चलन से नहीं जाती। इसके सम्पर्क में जो व्यक्ति आता है, वह रोगग्रस्त हो सकता है। इसके लिये उपचारक द्वारा इस ऊर्जा को नष्ट करना आवश्यक होता है। यह मात्र निम्न विधियों द्वारा नष्ट हो सकती है:
(क)
इच्छा शक्ति द्वारा- यह केवल योगियों, आध्यात्मिक संतों अथवा अति उन्नतशील उपचारकों द्वारा ही हो सकती है, न कि साधारण व्यक्तियों द्वारा |
(ख) नमक के पानी के घोल में इसके लिये किसी प्लास्टिक या रबड़ के बर्तन जो विद्युत का कुचालक हो, में लगभग १५ लीटर पानी में तीन चार मुठ्ठी नमक के अच्छी तरह घुल जाने पर होता है। इसके लिये उपचारक को अपने इच्छा शक्ति द्वारा हाथ को उपचार के दौरान उस बर्तन की ओर झटककर रोगग्रस्त ऊर्जा को बर्तन की ओर फेंकते हुए, उसको नमक के पानी के घोल में जाने एवं नष्ट होने के आदेश देना होता है। दिव्य दर्शन से देखा गया है कि नमक गंदे जीव द्रव्य पदार्थ के टुकड़े कर देता है ।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त नमक का घोल गंदे जीवद्रव्य फेंकने के फलस्वरूप विषैला होता जाता है। दस रोगियों के उपचार के बाद अथवा प्रथम रोगी के उपचार के ७२ घंटे बाद इस नमक के घोल को फेंक देना चाहिये। यदि इसको किसी नाली आदि अथवा पेड़ों-पौधों में डाला जाये तो विषैले प्रभाव से वहाँ जीव जन्तु को हानि पहुंचती है
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