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दोनों करना हो, तो अन्तिम विधि, अर्थात अन्त में किये गये ऊर्जन अथवा झाड़ बुहार के पश्चात ही प्रेषित ऊर्जा का स्थिरीकरण करें। उपचार के दौरान यदि कभी स्थिरीकरण करने के पश्चात, उस अंग /चक्र का पुनः सफाई या ऊर्जन करना हो, तो अपनी इच्छाशक्ति से की गई सील को खोल दें (unseal) कर दें एवम् स्थिरीकरण को अस्थिरीकरण (destabilization) कर दें। उपचार के अन्त में उक्त विधि द्वारा पुनः ऊर्जा का
स्थिरीकरण तथा सील करें। (घ) स्थिरीकरण सदैव ऊर्जन के पश्चात ही किया जाता है। यदि किसी
अंग /चक्र की मात्र सफाई ही की गयी हो और उसका ऊर्जन नहीं किया
गया हो, तो उसका स्थिरीकरण करने की आवश्यकता नहीं होती। (ड.) हथेली का चक्र (H) तथा पैर के तलवे का चक्र (S) के अन्दर प्रेषित गयी ऊर्जा
का कभी स्थिरीकरण तथा सील नहीं किया जाता, क्योंकि ये ताजी प्राणशक्ति के शरीर के अन्दर प्रवेश करने के बिन्दु (द्वार) होते हैं। इनका स्थिरीकरण करने से ताजी प्राणशक्ति के प्रवेश के अवरोध हो जाने के कारण शरीर
कमजोर हो सकता है। (१२) उपचार करते समय रोगी और उपचारक के मध्य एक वायवी डोर (etheric
Hirak) (प्राणशक्ति की कड़ी) बन जाती है। यदि उपचार के बाद इसको विच्छेद न किया जाये तो यह कड़ी बनी रहती है, चाहे उपचारक दूर ही क्यों न चला जाये तथा इस कड़ी के माध्यम से रोगी की रोगग्रस्त ऊर्जा उपचारक के शरीर में प्रवेश कर जाती है जो उसको प्रभावित करती है। इसको रोकने के लिए उक्त कड़ी को तोड़ना आवश्यक होता है। यह उन्नतशील उपचारक अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अथवा अन्य उपचारक द्वारा काल्पनिक तलवार या काल्पनिक कैंची के द्वारा इस कड़ी को काटकर किया जाता है। इसके लिए अपनी इच्छा शक्ति द्वारा अपने हाथ को तलवार मानकर हाथ को कड़ी के ऊपर तलवार की तरह चलाकर यह कड़ी काटी जाती है। इसी प्रकार की क्रिया कैंची द्वारा कड़ी काटने में की जा सकती है।
यह आवश्यक है कि उपचारक उपचार के दौरान रोगी से किसी भी प्रकार का भावनात्मक सम्बन्ध न रखे, चाहे वह उसका वह अपना बच्चा, पत्नी,