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की गयी प्राणशक्ति की तीव्रता में अंतर चक्र के घूमने की गति पर निर्भर होता है। यदि चक्र तेजी से घूमता है तो प्रक्षेपित प्राणशक्ति की तीव्रता अधिक होगी। यदि धीरे से घूमता है तो प्राणशक्ति की तीव्रता कम होगी। जब हाथ चक्र मुख्य रूप से प्राणशक्ति को सोखता या ग्रहण करता है तब वह घड़ी की दिशा में ३६० डिग्री पर तथा घड़ी की उल्टी दिशा में १८० डिग्री पर घूमता है। जब वह मुख्य रूप से प्राणशक्ति को प्रक्षेपित करता है तो यह क्रिया इसकी उल्टी होती है। प्राणशक्ति को ग्रहण करने या प्रक्षेपित करने की तीव्रता पर चक्र के घूमने के जंग का कोई प्रभाव नहीं होता बल्कि चक्र की गति पर निर्भर होती है। इसकी गाते जितनी तेज होगी उतनी ही तेजी से प्राणशक्ति प्रक्षेपित होगी या ग्रहण की जाएगी। उपचारक रोगी का उपचार करने में अपने हाथ का इस्तेमाल करता है। इसमें रोगी की रोग-ग्रसित ऊर्जा आने के कारण उपचारक को संक्रमित करने की संभावना रहती है। इससे बचने के लिए उपचारक को उपचार के दौरान लगातार अनेक बार अपने हाथों को झटकने तथा स्वस्थ प्राण ऊर्जा द्वारा साफ करते रहना चाहिए। इसके लिए एक हाथ को साफ करने के लिए, दूसरे हाथ को पहले हाथ के कंधे से लेकर किन्तु उससे लगभग दो इंच दूरी रखकर, अपने दूसरे हाथ में संकल्प शक्ति से स्वस्थ प्राण-शक्ति ऊर्जा को ग्रहण करते हुए, इस ऊर्जा से पहले हाथ की बांह से लेकर नीचे हाथ की उंगलियों के पोरों से भी लगभग छह इंच नीचे तक सफाई करना चाहिए तथा सफाई करने वाले हाथ को झटकते रहना चाहिए। इस क्रिया को सामान्यत: तीन दफा अथवा सन्तोष होने तक करना चाहिए। इसी प्रकार दूसरे हाथ की सफाई पहले हाथ से करें। प्राण-शक्ति हमारे चारों ओर सर्वत्र विद्यमान है, बल्कि यह कहना ज्यादा न्यायसंगत होगा कि हम प्राणशक्ति के महासागर में हैं। इस सिद्धान्त से उपचारक इससे प्राण शक्ति (बिना किसी सीमा के) लेकर बगैर अपनी प्राण ऊर्जा को खोये हुए अथवा बगैर अपने को थकाये हुए, रोगी को स्वस्थ प्राण ऊर्जा प्रक्षेपित कर सकता है।